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लच्छेदार जुमले और भय का माहौल / सैयद सलमान
Tuesday, April 16, 2024 12:05:16 PM - By सैयद सलमान

समाज में ऐसा ज़हर भाजपा ने बो दिया गया है जिससे मुसलमान लगभग अछूत हो गया है
साभार- दोपहर का सामना 05 04 2024

चुनावी घमासान अब धीरे-धीरे रंग पकड़ रहा है। टिकटों के बंटवारे से लेकर नामांकन तक की प्रक्रिया जारी है। नेताओं की पलटबाजियां ज़ोरों पर हैं। सभी पार्टियां फूंक-फूंक कर क़दम रख रही हैं। इस देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी मुसलमानों की है। ऐसे में मुसलमानों के वोट कई सीटों पर निर्णायक होते हैं और कई सीटों पर जीत के लिए सहायक होते हैं। कई सीटें ऐसी हैं जिस पर उनका कोई प्रभाव नहीं होता। अमूमन मुसलमानों के वोट कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, एमआईएम सहित ज़्यादातर ग़ैर भाजपा पार्टियों को मिलते रहे हैं। बसपा भी मुस्लिम मतों का अच्छा-ख़ासा हिस्सा अपने साथ जोड़ती रही है। आश्चर्यजनक तौर पर इस वक़्त मुस्लिम समाज का झुकाव शिवसेना (उद्धव बालासाहब ठाकरे) के साथ शिद्दत से देखा जा रहा है। हालांकि एमआईएम को लेकर मुसलमानों में दो राय है। एक तबक़ा उसकी पूरी हिमायत करता है, जबकि दूसरा तबक़ा ओवैसी को भाजपा की 'बी टीम' बताता है। इसके पीछे तर्क यह होता है कि ओवैसी के उम्मीदवार विपक्ष का वोट काटकर भाजपा को फ़ायदा पहुंचाते हैं। कुछ-कुछ यही आरोप अब मायावती पर भी लगने लगे हैं। इंडिया गठबंधन में शामिल न होना मुसलमानों के इस शक का एक बड़ा कारण है। मायावती ने अपनी सबसे मज़बूत ज़मीन उत्तर प्रदेश में संयुक्त विपक्ष से ज़्यादा मुस्लिम उम्मीदवार देकर इस आरोप को झुठलाना चाहा है, लेकिन मुसलमानों को लगता है कि इस से मुस्लिम मतों का और ज़्यादा बिखराव होगा।

मुस्लिम मतों को लेकर भाजपा भी गंभीर दिखने की कोशिश कर रही है। हालांकि टिकट देने के मामले में उसने पूरे देश में अब तक मात्र एक मुसलमान को केरल से टिकट दिया है जो शायद उसकी मजबूरी है। फिर भी वह मुसलमानों को बहलाए रखना चाहती है। इस लोकसभा चुनाव में वह भारी बहुमत और ऐतिहासिक जीत का दावा कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी भाजपा के लिए ३७० और एनडीए गठबंधन के लिए ४०० सीट जीतने का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए भाजपा मुस्लिम समाज में भी घुसपैठ करने के मिशन में लगी हुई है। इसके पीछे तिहरी रणनीति काम कर रही है। एक तो मुसलमानों को उनकी सुरक्षा के दिवास्वप्न दिखाए जाएं। दूसरे, मुसलमानों के ख़िलाफ़ भाजपा समर्थक संगठनों की तरफ़ से चलाए गए नफ़रती अभियानों को भूलने पर विवश किया जाए। तीसरे, मोदी के 'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास' जैसे लच्छेदार नारों से उन्हें बहलाया-फुसलाया जाए। हालांकि मुसलमानों को भाजपा की यह चाल समझ में आती है। फिर भी २-१ प्रतिशत वोटो का भी खेल होता है तो भाजपा के लिए राहत ही होगी।

भाजपा के १० साल के कार्यकाल में मुस्लिम समाज की स्थिति बिल्कुल नहीं बदली है। बल्कि बदतर हुई है। न उन्हें ग़रीबी से बाहर निकाला गया, न उनकी शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ, न ही मुस्लिम समुदाय को देश की मुख्यधारा से जोड़ने का कोई गंभीर प्रयास हुआ। इसके उलट, उनके भीतर 'भय का माहौल' बढ़ा है। गुंडों की दबंगई से मुक्ति के नाम पर उनके साथ यूपी, एमपी, हरियाणा, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सरकार और प्रशासन की गुंडागर्दी बढ़ी है। बुलडोज़र की राजनीति इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। ऐसा कोई मुद्दा नहीं है जिसमें हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की राह भाजपा न खोज लेती हो। मुख्य मुद्दों से बचने के इस खेल में यह रणनीति तुरुप का पत्ता साबित होती है। दुर्भाग्य से सभी पार्टियां मुसलमानों की उपेक्षा कर रही हैं। इससे भाजपा भी अछूती नहीं है। भाजपा समेत सभी पार्टियां मुस्लिम वोट तो चाहती हैं, लेकिन टिकट देने के नाम पर चुप्पी साध लेती हैं। उन्हें भाजपा के इस ध्रुवीकरण के खेल से डर लगता है, कि कहीं बहुसंख्यक नाराज़ न हो जाए। समाज में ऐसा ज़हर भाजपा ने बो दिया गया है जिससे मुसलमान लगभग अछूत हो गया है।

अनुमानतः २०२३ में देश की मुस्लिम आबादी १९.७५ करोड़ हो चुकी है। पिछली लोकसभा में मात्र २७ मुस्लिम सांसद चुने गए थे। आबादी के लिहाज़ से प्रतिनिधित्व की यह संख्या नगण्य है। भाजपा ने लोकसभा की मुस्लिम बहुल १०० से ज़्यादा सीटों को लेकर ख़ास तैयारी की है। या तो वहां नकारात्मक प्रचार होगा, या फिर ध्रुवीकरण का खेल होगा या फिर भय का वातावरण बनाकर मुसलमानों को किनारे किया जाएगा। अगर विपक्ष भी उन्हीं १०० सीटों पर मुसलमानों को लेकर सही रणनीति बनाती है तो नतीजे अलग आ सकते हैं। मुसलमानों को भी चाहिए कि वह भावनात्मक मुद्दों के झांसे में आने के बजाय ग़रीबी, बेरोज़गारी, महंगाई, मूलभूत सुविधाओं की कमी, भयंकर भ्रष्टाचार, बढ़ती तानाशाही, प्रशासनिक गुंडागर्दी जैसे मुद्दों के आधार पर मतदान करे। सबसे बड़ी बात, वोटों के बिखराव को रोके और ध्रुवीकरण का मोहरा न बने। इतना भी कर लिया तो काफ़ी है।


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)