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टोबा टेक सिंह: सआदत हसन मंटो की कहानी
Tuesday, September 12, 2023 - 11:21:55 PM - By सआदत हसन मंटो

टोबा टेक सिंह: सआदत हसन मंटो की कहानी
टोबा टेक सिंह
बंटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुक़ूमतों को ख़्याल आया कि अख्लाकी क़ैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए, यानी जो मुसलमान पागल हिन्दुस्तान के पागलखानों में हैं उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाय और जो हिन्दू और सिख पाकिस्तान के पागलखानों में है उन्हें हिन्दुस्तान के हवाले कर दिया जाए.
मालूम नहीं यह बात माकूल थी या ग़ैर-माकूल थी. बहरहाल, दानिशमंदों के फ़ैसले के मुताबिक़ इधर-उधर ऊंची सतह की कांफ्रेंसें हुईं और ‌दिन आख़िर एक दिन पागलों के तबादले के लिए मुक़र्रर हो गया. अच्छी तरह छानबीन की गयी. वो मुसलमान पागल जिनके लवाहिकीन (सम्बन्धी ) हिन्दुस्तान ही में थे, वहीं रहने दिये गये थे. बाक़ी जो थे उनको सरहद पर रवाना कर दिया गया. यहां पाकिस्तान में चूंकि क़रीब-क़रीब तमाम हिंदू सिख जा चुके थे इसलिए किसी को रखने-रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ. जितने हिंदू-सिख पागल थे सबके सब पुलिस की हिफ़ाज़त में सरहद पर पहुंचा दिये गये.
उधर का मालूम नहीं. लेकिन इधर लाहौर के पागलखानों में जब इस तबादले की ख़बर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चीमेगोइयां होने लगी. एक मुसलमान पागल जो बारह बरस से हर रोज़ बाकायदगी के साथ जमींदार पढ़ता था, उससे जब उसके एक दोस्त ने पूछा,‘मोल्हीसाब. ये पाकिस्तान क्या होता है?’
तो उसने बड़े गौरो फ़िक्र के बाद जवाब दिया,‘हिन्दुस्तान में एक ऐसी जगह है, जहां उस्तरे बनते हैं.’
ये जवाब सुनकर उसका दोस्त मुतमइन हो गया.
इसी तरह एक और सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा,‘सरदार जी हमें हिन्दुस्तान क्यों भेजा जा रहा है- हमें तो वहां की बोली नहीं आती.’
दूसरा मुस्कराया,‘मुझे तो हिन्दुस्तान की बोली आती है. हिंदुस्तानी बड़े शैतानी आकड़-आकड़ फिरते हैं.’
एक मुसलमान पागल ने नहाते-नहाते 'पाकिस्तान ज़िंदाबाद' का नारा इस ज़ोर से बुलन्द किया कि फ़र्श पर फिसलकर गिरा और बेहोश हो गया.
बाज पागल ऐसे थे जो पागल नहीं थे. उनमें अकसरियत ऐसे क़ातिलों की थी जिनके रिश्तेदारों ने अफ़सरों को दे-दिलाकर पागलखाने भिजवा दिया था कि फांसी के फंदे से बच जायें. ये कुछ-कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान क्या तकसीम हुआ और यह पाकिस्तान क्या है, लेकिन सही वाक़ेआत से ये भी बेख़बर थे. अख़बारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे. उनकी गुफ़्तगू (बातचीत) से भी वो कोई नतीजा बरआमद नहीं कर सकते थे. उनको सिर्फ़ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मद अली जिन्ना है, जिसको क़ायदे आज़म कहते हैं. उसने मुसलमानों के लिए एक अलहदा मुल्क बनाया है जिसका नाम पाकिस्तान है. यह कहां है? इसका महल-ए-वकू (स्थल) क्या है इसके मुतअल्लिक वह कुछ नहीं जानते थे. यही वजह है कि पागलखाने में वो सब पागल जिनका दिमाग़ पूरी तरह माउफ़ नहीं हुआ था, इस मखमसे में गिरफ़्तार थे कि वो पाकिस्तान में हैं या हिन्दुस्तान में. अगर हिन्दुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है. अगर वो पाकिस्तान में हैं तो ये कैसे हो सकता है कि वो कुछ अरसा पहले यहां रहते हुए भी हिन्दुस्तान में थे. एक पागल तो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान, और हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि और ज़्यादा पागल हो गया. झाड़ू देते-देते एक दिन दरख्त पर चढ़ गया और टहनी पर बैठकर दो घंटे मुस्तकिल तकरीर करता रहा, जो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के नाज़ुक मसअले पर थी. सिपाहियों ने उसे नीचे उतरने को कहा तो वो और ऊपर चढ़ गया. डराया, धमकाया गया तो उसने कहा,‘मैं न हिन्दुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में. मैं इस दरख्त पर ही रहूंगा.’
एक एम.एससी. पास रेडियो इंजीनियर, जो मुसलमान था और दूसरे पागलों से बिल्कुल अलग-थलग, बाग़ की एक खास रविश (क्यारी) पर सारा दिन खामोश टहलता रहता था, यह तब्दीली नमूदार हुई कि उसने तमाम कपड़े उतारकर दफ़ादार के हवाले कर दिये और नंगधडंग सारे बाग़ में चलना शुरू कर दिया.
एक मोटे मुसलमान पागल ने, जो मुस्लिम लीग का एक सरगर्म कारकुन था और दिन में पन्द्रह-सोलह मरतबा नहाता था, यकलख्त (एकदम) यह आदत तर्क (छोड़) कर दी. उसका नाम मुहम्मद अली था. चुनांचे उसने एक दिन अपने जिंगले में ऐलान कर दिया कि वह क़ायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्ना है. उसकी देखादेखी एक सिख पागल मास्टर तारासिंह बन गया. क़रीब था कि उस जिंगले में ख़ून-खराबा हो जाय, मगर दोनों को ख़तरनाक पागल करार देकर अलहदा-अलहदा बन्द कर दिया गया.
लाहौर का एक नौजवान हिन्दू वक़ील था जो मुहब्बत में मुब्तिला होकर पागल हो गया था. जब उसने सुना कि अमृतसर हिन्दुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ. इसी शहर की एक हिन्दू लड़की से उसे मुहब्बत हो गयी थी. गो उसने इस वक़ील को ठुकरा दिया था, मगर दीवानगी की हालत में भी वह उसको नहीं भूला था. चुनांचे वह उन तमाम मुस्लिम लीडरों को गालियां देता था, जिन्होंने मिल मिलाकर हिन्दुस्तान के दो टुकड़े कर दिये-उसकी महबूबा हिंदुस्तानी बन गयी और वह पाकिस्तानी.
जब तबादले की बात शुरू हुई तो वक़ील को कई पागलों ने समझाया कि वह दिल बुरा न करे, उसको हिन्दुस्तान वापस भेज दिया जायेगा. उस हिन्दुस्तान में जहां उसकी महबूबा रहती है. मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाहता था-इस ख़्याल से कि अमृतसर में उसकी प्रैक्टिस नहीं चलेगी.
यूरोपियन वार्ड में दो एंग्लो-इण्डियन पागल थे. उनको जब मालूम हुआ कि हिन्दुस्तान को आजाद करके अंग्रेज चले गये हैं तो उनको बहुत रंज हुआ. वह छुप-छुप कर इस मसअले पर गुफ़्तगू करते रहते कि पागलखाने में उनकी हैसियत क्या होगी. यूरापियन वार्ड रहेगा या उड़ जायेगा? ब्रेकफ़ास्ट मिलेगा या नहीं? क्या उन्हें डबलरोटी के बजाय ब्लडी इण्डियन चपाती तो ज़हरमार नहीं करनी पड़ेगी?
एक सिख था जिसको पागलखाने में दाख़िल हुए पन्द्रह बरस हो चुके थे. हर वक़्त उसकी जबान पर अजीबोग़रीब अल्फ़ाज़ सुनने में आते थे,'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी बाल आफ दी लालटेन.' वो न दिन में सोता था न रात में. पहरेदारों का कहना था कि पन्द्रह बरस के तवील अर्से में एक-एक लम्हे के लिए भी नहीं सोया. लेटा भी नहीं था. अलबना किसी दीवार के साथ टेक लगा लेता था.
हर वक़्त खड़ा रहने से उसके पांव सूज गये थे. पिंडलियां भी फूल गयीं थीं. मगर इस जिस्मानी तक़लीफ़ के बावजूद वह लेटकर आराम नहीं करता था. हिन्दुस्तान-पाकिस्तान और पागलों के तबादले के बारे में जब कभी पागलखाने में गुफ़्तगू होती थी तो वह ग़ौर से सुनता था. कोई उससे पूछता कि उसका क्या ख़्याल है तो बड़ी संजीदगी से जवाब देता,'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट.'
लेकिन बाद में आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट की जगह आफ दी टोबा टेकसिंह गवर्नमेंट ने ले ली और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है जहां का वो रहने वाला है. लेकिन किसी को भी नहीं मालूम था कि वो पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में. जो यह बताने की कोशिश करते थे वो ख़ुद इस उलझाव में गिरफ़्तार हो जाते थे कि स्याल कोटा पहले हिन्दुस्तान में होता था, पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है. क्या पता है कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है कल हिन्दुस्तान में चला जायगा या सारा हिन्दुस्तान ही पाकिस्तान बन जायेगा. और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता था कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से ग़ायब नहीं हो जायेंगे.
उस सिख पागल के केस छिदरे होके बहुत मुख्तसर रह गये थे. चूंकि वह बहुत कम नहाता था इसलिए दाढ़ी और बाल आपस में जम गये थे जिनके बाइस (कारण) उसकी शक्ल बड़ी भयानक हो गयी थी. मगर आदमी बेजरर (अहानिकारक) था. पन्द्रह बरसों में उसने किसी से झगड़ा-फसाद नहीं किया था. पागलखाने के जो पुराने मुलाजिम थे वो उसके मुतअलिक इतना जानते थे कि टोबा टेकसिंह में उसकी कई ज़मीनें थीं. अच्छा खाता-पीता ज़मींदार था कि अचानक दिमाग़ उलट गया. उसके रिश्तेदार लोहे की मोटी-मोटी जंजीरों में उसे बांधकर लाये और पागलखाने में दाख़िल करा गये.
महीने में एक बार मुलाक़ात के लिए ये लोग आते थे और उसकी ख़ैर-ख़ैरियत दरयाफ़्त करके चले जाते थे. एक मुप्त तक ये सिलसिला जारी रहा, पर जब पाकिस्तान हिन्दुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उनका आना बन्द हो गया.
उसका नाम बिशन सिंह था. मगर सब उसे टोबा टेकसिंह कहते थे. उसको ये मालूम नहीं था कि दिन कौन-सा है, महीना कौन-सा है या कितने दिन बीत चुके हैं. लेकिन हर महीने जब उसके अजीज व अकारिब (सम्बन्धी) उससे मिलने के लिए आते तो उसे अपने आप पता चल जाता था. चुनांचे वो दफ़ादार से कहता कि उसकी मुलाक़ात आ रही है. उस दिन वह अच्छी तरह नहाता, बदन पर ख़ूब साबुन घिसता और सिर में तेल लगाकर कंघा करता. अपने कपड़े जो वह कभी इस्तेमाल नहीं करता था, निकलवा के पहनता और यूं सज-बन कर मिलने वालों के पास आता. वो उससे कुछ पूछते तो वह खामोश रहता या कभी-कभार 'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी वेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी लालटेन' कह देता. उसकी एक लड़की थी जो हर महीने एक उंगली बढ़ती-बढ़ती पन्द्रह बरसों में जवान हो गयी थी. बिशन सिंह उसको पहचानता ही नहीं था. वह बच्ची थी जब भी आपने बाप को देखकर रोती थी, जवान हुई तब भी उसकी आंख में आंसू बहते थे. पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का क़िस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है. जब इत्मीनान बख़्श (सन्तोषजनक) जवाब न मिला तो उसकी कुरेद दिन-ब-दिन बढ़ती गयी. अब मुलाक़ात नहीं आती है. पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलने वाले आ रहे हैं, पर अब जैसे उसके दिल की आवाज़ भी बन्द हो गयी थी जो उसे उनकी आमद की ख़बर दे दिया करती थी.
उसकी बड़ी ख़्वाहिश थी कि वो लोग आयें जो उससे हमदर्दी का इजहार करते थे ओर उसके लिए फल, मिठाइयां और कपड़े लाते थे. वो उनसे अगर पूछता कि टोबा टेकसिंह कहां है तो यक़ीनन वो उसे बता देते कि पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में, क्योंकि उसका ख़्याल था कि वो टोबा टेकसिंह ही से आते हैं जहां उसकी ज़मीनें हैं.
पागलखाने में एक पागल ऐसा भी था जो ख़ुद को ख़ुदा कहता था. उससे जब एक दिन बिशन सिंह ने पूछा कि टोबा टेकसिंह पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में तो उसने हस्बेआदत (आदत के अनुसार) कहकहा लगाया और कहा,‘वो न पाकिस्तान में है न हिन्दुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुक़्म नहीं लगाया.’
बिशन सिंह ने इस ख़ुदा से कई मरतबा बड़ी मिन्नत समाजत से कहा कि वो हुक़्म दे दे ताकि झंझट खत्म हो, मगर वो बहुत मसरूफ़ था, इसलिए कि उसे ओर बेशुमार हुक्म देने थे. एक दिन तंग आकर वह उस पर बरस पड़ा,'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ वाहे गुरुजी दा खलसा एन्ड वाहे गुरुजी की फ़तह. जो बोले सो निहाल सत सिरी अकाल.' उसका शायद यह मतलब था कि तुम मुसलमान के ख़ुदा हो, सिखों के ख़ुदा होते तो ज़रूर मेरी सुनते. तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेकसिंह का एक मुसलमान दोस्त मुलाक़ात के लिए आया. पहले वह कभी नहीं आया था. जब बिशन सिंह ने उसे देखा तो एक तरफ हट गया और वापस आने लगा मगर सिपाहियों ने उसे रोका,‘ये तुमसे मिलने आया है. तुम्हारा दोस्त फ़ज़लदीन है.’
बिशन सिंह ने फ़ज़लदीन को देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा. फ़ज़लदीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा,‘मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूं लेकिन फ़ुर्सत ही न मिली. तुम्हारे सब आदमी ख़ैरियत से चले गये थे मुझसे जितनी मदद हो सकी मैंने की. तुम्हारी बेटी रूप कौर...’ वह कुछ कहते कहते रुक गया.
बिशन सिंह कुछ याद करने लगा,‘बेटी रूप कौर...’
फ़ज़लदीन ने रुक कर कहा,‘हां वह भी ठीक-ठाक है. उनके साथ ही चली गयी थी.’
बिशन सिंह ख़ामोश रहा. फ़ज़लदीन ने कहना शुरू किया,‘उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम्हारी ख़ैर-ख़ैरियत पूछता रहूं. अब मैंने सुना है कि तुम हिन्दुस्तान जा रहे हो. भाई बलबीर सिंह और भाई बिधावा सिंह से सलाम कहना और बहन अमृत कौर से भी. भाई बलबीर से कहना फ़ज़लदीन राज़ी-ख़ुशी है. वो भूरी भैंसें जो वो छोड़ गये थे उनमें से एक ने कट्टा दिया है दूसरी के कट्टी हुई थी पर वो छ: दिन की हो के मर गयी और और मेरे लायक़ जो ख़िदमत हो कहना. मैं हर वक़्त तैयार हूं और ये तुम्हारे लिए थोड़े से मरून्डे लाया हूं.’
बिशन सिंह ने मरून्डे की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फ़ज़लदीन से पूछा,‘टोबा टेकसिंह कहां है?’
‘टोबा टेकसिंह...’ उसने क़द्रे हैरत से कहा. ‘कहां है! वहीं है, जहां था.’
बिशन सिंह ने पूछा,‘पाकिस्तान में या हिन्दुस्तान में?’
‘हिन्दुस्तान में... नहीं-नहीं पाकिस्तान में...’
फ़ज़लदीन बौखला-सा गया. बिशन सिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया,‘ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी पाकिस्तान एन्ड हिन्दुस्तान आफ दी हए फिटे मुंह.’
तबादले की तैयारियां मुक़म्मल हो चुकी थीं. इधर से उधर और उधर से इधर आने वाले पागलों की फेहरिस्तें (सूचियां) पहुंच गयी थीं, तबादले का दिन भी मुकरर्र हो गया था. सख़्त सर्दियां थीं. जब लाहौर के पागलखाने से हिन्दू-सिख पागलों से भरी हुई लारियां पुलिस के मुहाफ़िज़ दस्ते के साथ रवाना हुईं तो मुतअल्लिका (संबंधित) अफ़सर भी हमराह थे. वाघा के बॉर्डर पर तरफ़ैन के (दोनों तरफ़ से) सुपरिटेंडेंट एक-दूसरे से मिले और इब्तेदाई कार्रवाई ख़त्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया जो रात भर जारी रहा.
पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफ़सरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था. बाज तो बाहर निकलते ही नहीं थे. जो निकलने पर रजामन्द होते थे, उनको संभालना मुश्क़िल हो जाता था क्योंकि इधर-उधर भाग उठते थे. जो नंगे थे उनको कपड़े पहनाये जाते, तो वो फाड़कर अपने तन से जुदा कर देते कोई गालियां बक रहा है, कोई गा रहा है. आपस में लड़-झगड़ रहे हैं, रो रहे हैं, बक रहे हैं. कान पड़ी आवाज़ सुनायी नही देती थी. पागल औरतों का शेरोगोगा अलग था और सर्दी इतने कड़ाके की थी कि दांत बज रहे थे.
पागलों की अकसरियत इस तबादले के हक़ में नहीं थी. इसलिए कि उनकी समझ में आता था कि उन्हें अपनी जगह से उखाड़कर कहां फेंका जा रहा है. चन्द जो कुछ सोच रहे थे,'पाकिस्तान जिन्दाबाद' के नारे लगा रहे थे. दो-तीन मरतबा फ़साद होते-होते बचा, क्योंकि बाज मुसलमान और सिखों को ये नारे सुनकर तैश आ गया.
जब बिशन सिंह की बारी आयी ओर वाघा के उस पार मुतअल्लका अफ़सर उसका नाम रजिस्टर में दर्ज करने लगा तो उसने पूछा,‘टोबा टेकसिंह कहां है? पाकिस्तान में या हिन्दुस्तान में?’
मुतअल्लका अफ़सर हंसा,‘पाकिस्तान में.’
यह सुनकर बिशन सिंह उछलकर एक तरफ़ हटा और दौड़कर अपने बाक़ी साथियों के पास पहुंच गया. पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे. मगर उसने चलने से इन्कार कर दिया, और ज़ोर-ज़ोर- से चिल्लाने लगा,‘टोबा टेकसिंह कहां है? ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी टोबा टेकसिंह एन्ड पाकिस्तान.’
उसे बहुत समझाया गया कि देखो अब टोबा टेकसिंह हिन्दुस्तान में चला गया है. अगर नहीं गया तो उसे फ़ौरन वहां भेज दिया जायेगा. मगर वो न माना. जब उसको ज़बर्दस्ती दूसरी तरफ़ ले जाने की कोशिश की गयी तो वह दरम्यान में एक जगह इस अन्दाज़ में अपनी सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया, जैसे अब उसे वहां से कोई ताक़त नहीं हटा सकेगी.
आदमी चूंकि बेजरर था इसलिए उससे मजीद ज़बर्दस्ती न की गयी. उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और बाक़ी काम होता रहा. सूरज निकलने से पहले साकित व साकिन (शान्त) बिशनसिंह हलक से एक फ़लक शगाफ़ (आसमान को फाड़ देने वाली) चीख निकली. इधर-उधर से कई अफ़सर दौड़ आये और देखा कि वो आदमी जो पन्द्रह बरस तक दिन-रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा, औंधे मुंह लेटा था. उधर खारदार तारों के पीछे हिन्दुस्तान था. इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान. दरमियान में ज़मीन के इस टुकड़े पर, जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेकसिंह पड़ा था.