साभार- दोपहर का सामना 26 02 2021
यह बात शायद कुछ अटपटी लगे, लेकिन है बिलकुल आश्चर्यजनक सत्य, जिससे कट्टरपंथी तबक़ा जरूर आहत हो सकता है। दरअसल अयोध्या के मुस्लिम समुदाय के कई लोग वहां राममंदिर निर्माण को लेकर अभिभूत और उत्साहित नज़र आ रहे हैं। ऐसे लोगों का मानना है कि यह उनके पैग़ंबर और उनके पूर्वज का मंदिर बन रहा है। ऐसे लोग वहां भव्य राम मंदिर बनते हुए देखना चाहते हैं। गंगा-जमुनी तहज़ीब की धरोहर संजोए अयोध्या के मुसलमानों की यह पहल दरअसल हर हिंदुस्तानी अपने दिल में संजोना चाहता है। बड़ी संख्या में मुस्लिम समुदाय के लोग अपनी क्षमतानुसार राममंदिर के लिए दान देकर उसकी रसीद ले रहे हैं। आख़िर इस बदलाव के पीछे कोई तो वजह होगी। अयोध्या के उन मुसलमानों को यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि, उन्हें अपने फ़ायदे के लिए चंद धर्मांध शक्तियों ने लड़ाया। लेकिन अब मुस्लिम समुदाय को सत्य समझ में आ गया है, इसीलिए वह अयोध्या में अपने पैग़ंबर का भव्य मंदिर देखना चाहते हैं। यह पैग़ंबर वाली अवधारणा हिंदू भाइयों को भी भा रही है। उन्हें भी लग रहा है कि चलो, वर्षों विवादित रही अयोध्यानगरी के बहाने कम से कम अब तो अमन की वही कहानी दोहराएगी जिसे कभी रामराज्य कहा जाता था।
अब सवाल उठता है कि आख़िर यह 'पैग़ंबर' की अवधारणा है क्या? पैग़ंबर यानि पैग़ाम देने वाला। पैग़ंबर, नबी, रसूल, इमाम जैसे कुछ शब्द हैं जो लगभग एक जैसे लगते हैं लेकिन उन के ग्रांथिक अर्थ और कार्य अलग-अलग होते हैं। अंग्रेज़ी में पैग़ंबर का समान रूप अर्थ देने वाला शब्द है 'प्रोफ़ेट'। प्रोफेट का मतलब पैगाम देने वाला और प्रोफ़ेसी करने वाला। इस्लाम, ईसाई और यहूदी आदि धर्मों की मान्यतानुसार ईश्वर का संदेश लेकर मनुष्यों के पास आने वाले को पैग़ंबर के साथ ही ईशदूत भी कहा जाता है। उन्हें नबी भी कहा जाता है। नबी का अर्थ है ईश्वर का गुणगान करनेवाला, ईश्वर की शिक्षा तथा उसके आदर्शों का उद्घोषक। इस्लाम, ईसाई, यहूदी, बहाई, प्राचीन यूनान, पारसी आदि धर्मों और संस्कृतियों में विभिन्न नबियों के होने के दावे किये गये हैं। ऐसी मान्यता है कि सर्वशक्तिमान ईश्वर के आदेश से सारे नबी, ईश्वर और मानव जाति के बीच आधार बनकर मानव कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने वाले और मानवता का पाठ पढ़ाने वाले थे। इस्लामी मान्यता के अनुसार अल्लाह की ओर से अवतरित होने वाले पैग़ंबरों और नबियों की संख्या लगभग एक लाख चौबीस हज़ार है। इस्लाम में पैग़ंबर के दो प्रकार हैं, एक नबी और दूसरा रसूल। लेकिन इतना तो तय है कि नबी और रसूल दोनों पैग़ंबर ही होते हैं, क्योंकि उन्हीं के माध्यम से ईश्वरीय संदेश जन-जन तक पहुंचते हैं।
एक सवाल यह भी उठता है कि फिर क़ुरआन में चुनिंदा नबियों का ही ज़िक्र क्यों है? जहां तक धर्मग्रंथों की बात है या किताबों में दर्ज होने की बात है तो दुनिया के किसी भी धर्म ने कभी यह दावा नहीं किया है कि उनके पास सभी पैग़ंबर या ईशदूतों के नाम मौजूद हैं। न ही पवित्र क़ुरआन और हदीस में एक लाख चौबीस हज़ार पैग़ंबरों के नाम हैं। चूंकि सभी अंबिया कराम और उनसे जुड़ी घटनाओं को विस्तार से वर्णन करने की आवश्यकता नहीं थी, इसलिए उन्हें सुरक्षित करने का कोई इंतज़ाम नहीं किया गया। क़ुरआन के बयान की अपनी अलग शैली है, जिसमें घटनाओं को संक्षेप में वर्णित किया गया है और वह भी इसलिए ताकि उसकी शिक्षा और अवधारणाएं मानवता के लिए एक आदर्श बन सकें। यदि क़ुरआन की शैली एक शब्दकोष या क़िस्सागोई के रूप में होती तो पहले नबी से लेकर अंतिम पैग़ंबर तक सभी के नाम और घटनाएं दर्ज मिलतीं। लेकिन इस तरह से कुरआन मानवता का मूल संदेश देने वाली किताब का दर्जा रखने के बजाय मात्र एक शब्दकोश के रूप में या कहानी के रूप में पढ़ी जाने वाली किताब बनकर रह जाती। इस से उसकी तार्किकता और निरंतरता प्रभावित होती।
दरअसल जबसे रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की शुरुआत हुई तबसे दो समुदायों की साझा विरासत को नज़र लग गई। इस बात से किसी को इनकार नहीं होगा कि इस विवाद ने दोनों का नुक़सान किया है। राजनीति से प्रभावित मुसलमानों का एक वर्ग और धार्मिक विद्वान इस विवाद को अदालत से बाहर सुलझाने के पक्ष में सक्रिय रहे, लेकिन कट्टरपंथी मुसलमानों को यह रास नहीं आता था। मौलाना सलमान नदवी जैसे इस्लाम के जानकार मस्जिद को अयोध्या या कहीं और स्थानांतरित करने की बात कहते रहे लेकिन किसी ने उनकी बात तब नहीं मानी। इसके लिए सलमान नदवी ने ख़लीफ़ा उमर बिन ख़त्ताब के दौर की मिसाल भी बताई जब इराक़ स्थित कूफ़ा में एक मस्जिद को स्थानांतरित कर वहां खजूर बाज़ार बनाया गया था। टकराव टालने की नीयत से दी गई नदवी की यह सलाह तमाम बड़े लेकिन कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं को बिल्कुल नागवार गुज़री और इसी के चलते उन्हें मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से बाहर तक कर दिया गया था।
सुखद बात यह है कि मुसलमानों का बड़ा तबक़ा मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को धरती पर अवतरित एक लाख चौबीस हज़ार पैग़ंबरों में से एक मानता है और शायद उसी तबक़े का प्रतिनिधित्व अयोध्या के वह मुसलमान कर रहे हैं जो न सिर्फ़ रामजन्मभूमि मंदिर के भव्य निर्माण के लिए दान दे रहे हैं। यूं भी इस्लाम दूसरे धर्मों का सम्मान करने की सीख देता है और उनके बारे में अपमानजनक बातें कहने की अनुमति कदापि नहीं देता। इस्लाम मूल रूप से अमन पसंद धर्म है। हिंसा और आतंक की विचारधारा को कई इस्लामिक स्कॉलर्स और धर्मगुरुओं ने ग़लत ठहराया भी है। इस्लाम कहता है कि अगर तुम्हारे पड़ोस में किसी भी ग़ैर-मुस्लिम का घर है और अगर वह भूखा है तो उसे भूखा न रहने दो। इस्लाम सिखाता है कि सच्चे मुसलमान को सच्चा इंसान बनना चाहिए। दूसरे धर्म के किसी देवी देवता का अपमान इस्लाम में वर्जित है। सच बात यही है कि धर्म के नाम पर दिखावे के लिए नहीं बल्कि इस्लाम के मानने वाले को इंसानियत का पैरोकार सच्चा मुसलमान बनना चाहिए। इस्लाम के माननेवाले जिस पवित्र धर्मग्रंथ को जान से ज़्यादा मानते हैं उसका संदेश है, 'वास्तव में ईश्वर ही मेरा भी रब है और तुम्हारा भी, तो उसी की बंदगी करो। यही सीधा मार्ग है।' (अल-क़ुरआन- ४३:६४) लेकिन अफ़सोस इसी बात का है कि मुसलमान अल्लाह, रसूल, क़ुरआन को तो मानता है पर उनकी सीख नहीं मानता।
बड़ी बात यह है कि अब अयोध्या विवाद शांत हो गया है। लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस विवाद के सालों साल चलते रहने के बीच भी राम जन्मभूमि परिसर से सटी मस्जिदें, हिंदू-मुसलमानों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का संदेश देते रहे हैं। रामजन्मभूमि परिसर के करीब आठ मस्जिदें और दो मक़बरे भी हैं। स्थानीय हिंदुओं की तरफ़ से बिना किसी आपत्ति के इन मस्जिदों में अज़ान दी जाती रही है और नमाज़ पढ़ी जाती रही है। इसी के साथ मक़बरों में वार्षिक 'उर्स' का आयोजन भी किया जाता रहा है। रामजन्मभूमि परिसर के पास स्थित आठ मस्जिदें- मस्जिद दोराही कुआं, मस्जिद माली मंदिर के बगल, मस्जिद काज़ियाना अच्छन के बगल, मस्जिद इमामबाड़ा, मस्जिद रियाज़ के बगल, मस्जिद बदर पांजी टोला, मस्जिद मदार शाह और मस्जिद तेहरी बाज़ार जोगियों की हैं। दो मक़बरों के नाम ख़ानक़ाहे मुज़फ़्फ़रिया और इमामबाड़ा है। इन धार्मिक स्थलों की मौजूदगी और बिरादरान-ए-वतन का ख़ुलूस मुसलमानों के लिए किसी सरमाए से कम नहीं है। अयोध्या शायद इसी कारण हमेशा सकारात्मक चर्चा में रहा क्योंकि यहां अगर रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद था भी तो उसके असर से भले ही देश भर में अलग-अलग ठिकानों पर दंगे-फ़साद हुए हों, सांप्रदायिक वैमनस्य बिगड़ा हो, लेकिन अयोध्या से हमेशा शांति की अपील होती रही और वहां पूरी तरह अमन ही रहा। यह अयोध्या की महानता है कि राम मंदिर के आस-पास स्थित मस्जिदें पूरे विश्व को सांप्रदायिक सद्भाव का मजबूत संदेश देते रहे। हालांकि राजनीति ने भले ऐसा होने में रुकावट डाली हो, लेकिन अयोध्या वासियों ने अपनी सांस्कृतिक विरासत का दामन नहीं छोड़ा। सच यही है कि सांप्रदायिक एकता और सतत विकास देश की अस्मिता के लिए अत्यावश्यक है, क्योंकि पूरा संसार हिंदुस्तान की ओर आशाभरी नज़रों से देख रहा है
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)