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क्या वैक्सीन अपवित्र है.....?
Friday, December 25, 2020 11:54:49 AM - By सैयद सलमान 

वैक्सीन के मामले में विश्व के तीन बड़े धर्मों को एक पंक्ति में खड़ा कर दिया है
साभार- दोपहर का सामना 25 12 2020

कोविड-१९ का क़हर पूरी दुनिया पर अभी भी जारी है। लाखों लोगों की मौत हो चुकी है। ब्रिटेन में तो कोरोना वायरस के बहुत तेज़ी से फैलने वाले नए स्ट्रेन के पाए जाने के बाद अब वहीं पर उसी वायरस का एक और नया स्ट्रेन सामने आया है। यानि अभी भी ख़तरा बरक़रार है। वैक्सीन को लेकर दावे-प्रतिदावे हो रहे हैं। दुनिया को पूरी तरह सुरक्षित वैक्सीन का बेसब्री से इंतज़ार है। भले ही विज्ञान ने तरक़्क़ी कर ली हो लेकिन आज भी समाज में ऐसे लोग मौजूद हैं जिनको बीमारियां ईशवरीय प्रकोप लगती हैं। दवाइयों में धार्मिक प्रतिबंधित वस्तुओं के इस्तेमाल का मुद्दा भी है। झाड़-फूँक से बीमारी का इलाज कराने वाले लोग भी मौजूद हैं, इसलिए इसी तरह से इलाज करने वाले लोग भी बड़ी संख्या में मिल जाएंगे। ऐसे लोगों को विश्वास में लेने के लिए अनेक देशों की सरकारें धार्मिक संगठनों और धर्मगुरुओं को समझाने की लगातार कोशिश कर रही हैं।

इतने हाहाकार के बीच अभी भी रूढ़िवादी तबक़े में इस बात को लेकर चर्चा है कि क्या वैक्सीन लगाने की उनका धर्म उन्हें इजाज़त देता है? कई धर्मों का मामला ऐसा है कि उनका धर्म और उनके धर्मगुरु यह बताते हैं कि वैक्सीन लगवाना पाप है। उन्हें इस बात पर आपत्ति है कि वैक्सीन में इस्तेमाल होने वाली चीज़ उनके धर्म के ख़िलाफ़ है। ख़ासकर मुस्लिम, ईसाई और यहूदी धर्म में इस बात को लेकर बहस छिड़ी है। वैक्सीन को लेकर ऐसी असमंजस की स्थिति मुस्लिम और यहूदी समुदाय के लोगों में सुअर के मांस को लेकर है। दरअसल इन दोनों समुदाय में सुअर का मांस वर्जित और हराम है। इस असमंजस का कारण यह है कि टीकों के भंडारण और ढुलाई के दौरान उनकी सुरक्षा और प्रभाव बनाए रखने के लिए सुअर के मांस से बने जिलेटिन का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जा रहा है। मुस्लिम और यहूदी समाज इसी कारण कोरोना वैक्सीन को ‘अपवित्र’ मान रहा है। ईसाई धर्मगुरुओं ने भी वैक्सीन के परीक्षण के लिए गर्भपात के ज़रिए निकाले गए भ्रूण की कोशिकाओं के इस्तेमाल पर ऐतराज़ ज़ाहिर किया है। यानि धर्म के प्रभाव ने वैक्सीन के मामले में विश्व के इन तीनों बड़े धर्मों को एक पंक्ति में खड़ा कर दिया है।

इस बहस की शुरुआत दक्षिण-पूर्वी एशियाई और मुस्लिम बहुल देशों इंडोनेशिया और मलेशिया में हुई। हालांकि औषधि बनाने के लिए मशहूर फ़ाइज़र, मॉडर्न, और एस्ट्राजेनेका का दावा है कि उनके कोविड-१९ टीकों में सुअर के मांस से बने उत्पादों का इस्तेमाल नहीं किया गया है। लेकिन फिर भी सीमित आपूर्ति के तहत दूसरी कंपनियों के साथ जो क़रार हुआ है उसके हिसाब से यह साफ़ है कि भंडारण और ढुलाई के वक़्त उनके प्रभाव को बनाए रखना भी अहम होगा और उसके लिए धार्मिक प्रतिबंधित चीज़ों का इस्तेमाल होगा। चिंता यहीं से शुरू हुई है। साथ ही कई कंपनियां ऐसी हैं, जिन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया है कि उनके टीकों में सुअर के मांस से बने उत्पादों या फिर अबॉर्शन के ज़रिए निकाले गए भ्रूण की कोशिकाओं का इस्तेमाल किया गया है या नहीं। ऐसे में धार्मिक विचारधारा से प्रभावित लोगों का भ्रमित होना स्वाभाविक है। सरकारें या औषधि कंपनियां किसी प्रकार का स्पष्ट उत्तर न देकर इस भ्रम को और बढ़ा रही हैं।

हालांकि इज़राइल के रब्बानी संगठन 'जोहर' ने स्पष्ट किया है कि यहूदी क़ानूनों के अनुसार सुअर का मांस खाना या इसका इस्तेमाल करना तभी जायज़ है जब इसके बिना काम न चले और इसे औषधि या इंजेक्शन के तौर पर लिया जाए। इसे खाया नहीं जाए तो यह जायज़ है, इससे कोई दिक्कत नहीं है। वहीं दूसरी तरफ़ ईसाईयों के लिए पवित्र वेटिकन ने भी एक बयान जारी कर कहा है कि वैक्सीन बनाए जाने की प्रक्रिया में अधार्मिक चीज़ों का इस्तेमाल किया गया है लेकिन एक गंभीर बीमारी से बचने के लिए इसका इस्तेमाल नैतिक रूप से ठीक है। इसके बावजूद इन दोनों समुदाय में अब भी भ्रम बना ही हुआ है। वैसे बड़े पैमाने पर देखा जाए तो मुस्लिम समुदाय ही है जो अभी तक यह निश्चित नहीं कर सका है कि टीका लगवाएगा या नहीं क्योंकि मुस्लिम धर्मगुरु, मौलाना और मुफ़्ती अभी वैक्सीन के हलाल या हराम होने की जांच कर रहे हैं। इस्लाम में उन उत्पादों को 'हलाल' कहा जाता है जिनमें 'हराम' चीज़ों का इस्तेमाल नहीं होता है, जैसे शराब या सूअर का मांस।

जहां तक बात मुस्लिम समाज की है तो उसने कोरोना वैक्सीन को औषधि न मानकर उसे ‘हलाल’ और ‘हराम’ का मुद्दा बना दिया है। मुस्लिम समाज पर यह आरोप लगते ही हैं कि वह अपनी कट्टरपंथी सोच पर हमेशा कायम रहता है। इसीलिए वैश्विक पटल पर वह बदनाम भी है। यहूदी और ईसाई पहले ही उन्हें दकियानूसी बताते रहे हैं। हालांकि जिस तरह कोरोना ने सबको एक ही पंक्ति में खड़ा किया था उसी तर्ज़ पर वैक्सीन को लेकर भी सभी धर्म के लोग कट्टरपंथ पर एक ही सामान विचार प्रकट कर रहे हैं। इस्लाम में सुअर का मांस खाना वर्जित और हराम है यह तो सर्वविदित है। पवित्र क़ुरआन में कम से कम चार स्थानों पर सुअर का मांस खाने की मनाही की गई है। क़ुरआन की सूरह २ आयत १७३, सूरह ५ आयत ३, सूरह ६ आयत १४५, सूरह १६ आयत ११५ में इस विषय पर स्पष्ट आदेश दिये गए हैं। पवित्र क़ुरआन की यह सभी आयतें मुसलमानों को संतुष्ट करने हेतु पर्याप्त हैं कि सुअर का मांस उनके लिए हराम है।

वैक्सीन ‘हलाल’ है या ‘हराम’ यह विवाद साल २०१८ में भी तब सामने आया था जब ख़सरा और रूबेला के टीके को हराम बताया गया था। इसमें भी जिलेटिन का इस्तेमाल किया गया था। पोलिया टीकाकरण के दौरान भी ऐसी समस्या आई थी। लेकिन दुनिया ने देखा कि ना-नुकुर के बाद लोगों ने टीका लगवाया। अब कोरोना वैक्सीन को लेकर वही बहस हो रही है। हालांकि कई प्रगतिशील निर्णय लेकर विवादों में आए संयुक्त अरब अमीरत ने फिर एक पहल कर दी है। यूएई की सर्वोच्च संस्था यूएई फ़तवा काउंसिल ने कोरोना वैक्सीन को जायज़ करार देते हुए फ़तवा जारी किया है कि अगर वैक्सीन में सुअर से बनने वाला जिलेजिन भी मौजूद है तब भी मुस्लिम उस वैक्सीन को ले सकते हैं। काउंसिल का स्पष्टीकरण है कि अगर कोई और विकल्प नहीं है तो कोरोना वायरस टीकों को इस्लामी पाबंदियों से अलग रखा जा सकता है, क्योंकि पहली प्राथमिकता 'मनुष्य का जीवन बचाना है।' काउंसिल का मानना है कि सुअर की जिलेटिन दवा है, ना कि खाना।

अब यहां पवित्र क़ुरआन के एक संदेश का ज़िक्र करना लाज़िमी है। वह है दूसरी सूरह की १७२ वीं आयत, जिसके एक हिस्से में स्पष्ट तौर पर हराम चीजों का ज़िक्र है। "उसने तो तुम पर केवल मुर्दार और ख़ून और सुअर का माँस और जिस पर अल्लाह के अतिरिक्त किसी और का नाम लिया गया हो, हराम ठहराया है।" यानि आयत का यह हिस्सा प्रतिबंधित चीज़ों को स्पष्ट करता है जबकि उसी आयत का दूसरा हिस्सा स्पष्ट करता है कि, "इस पर भी जो बहुत मजबूर और विवश हो जाए, वह अवज्ञा करने वाला न हो और न सीमा से आगे बढ़ने वाला हो तो उस पर कोई गुनाह नहीं। निस्संदेह अल्लाह अत्यंत क्षमाशील, दयावान है।" यानी किसी की अगर जान पर बन आए तो जान बचाने तक की सीमा में उसका इस्तेमाल अत्यंत क्षमाशील और दयावान अल्लाह ने माफ़ किया है। यह इस्लामी न्याय विधि का उसूल है। अब मुस्लिम धर्मगुरुओं का एक समूह इसी दूसरे हिस्से को महत्व देकर वैक्सीन को इस्तेमाल करने की इजाज़त देना चाहता है। मुस्लिम बुद्धिजीवियों का बड़ा तबक़ा यह भी मानता है कि इंसानी जान बचाने के लिए अगर कोई आदमी भूखा है और उसके पास खाने के लिए कुछ नहीं है तो ऐसी सूरत में हराम भी हलाल हो जाता है। जैसा कि क़ुरआन शरीफ़ में दर्ज है, क्या सचमुच कोरोना ने हर इंसान को मजबूर और विवश नहीं कर दिया है? जान बचाने के लिए टीके के इस्तेमाल को स्वीकार करने का शायद यही तर्क सामने लाया जा रहा है। अब देखना यह है कि मुस्लिम समाज इसे किस रूप में लेता है।


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में विजिटिंग फैकेल्टी हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)