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(मुसलमान और पड़ोसी) परिभाषा क्या है.....? / सैयद सलमान
Friday, October 25, 2019 - 7:47:50 AM - By सैयद सलमान

(मुसलमान और पड़ोसी) परिभाषा क्या है.....? / सैयद सलमान
सैयद सलमान
​साभार- दोपहर का सामना 25 10 2019

अगर मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो उसकी कई सामाजिक ज​ ज़ि​म्मेदारियां भी हैं। ​ख़ानदान और परिवार तो उसे उसके जन्म के साथ ही रिश्तों की शक्ल में मिल जाते हैं लेकिन मित्र, साथी, पड़ोसी ​वग़ैरह समय के साथ-साथ अक्सर बदलते भी रहते हैं और कभी कभार उन्हीं के साथ पूरी ​ज़िंदगी बीत जाती है और ऐसे लोग परिवार से कहीं ​ज़्यादा महत्वपूर्ण बन जाते हैं। आज​-​कल की व्यस्त ​ज़िंदगी में लोगों के पास ​वक़्त की कमी है। इसके कारण रिश्तों की गर्मजोशी भी कम होती जा रही है। लोग आजकल अपने आप में इतने ​मशग़ूल रहते हैं कि उन्हें आसपास अपनी सामाजिक ​ज़िम्मेदारियों तक का एहसास नहीं रहता। ​अक्सर हम व्यस्तता के कारण पारिवारिक ​ज़िंदगी के साथ-साथ सामाजिक ​ज़िंदगी को भी प्राथमिकता देना बंद कर देते हैं जो रिश्तों में दूरियां पैदा करने का काम करती है। अगर इंसान अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियों पर बराबर ध्यान दे तो सामाजिक रिश्तों की बुनियाद पर सामाजिक सद्भाव का बेहतरीन ढांचा तैयार किया जा सकता है। इन सामाजिक रिश्तों की शुरुआत अच्छे पड़ोसी बनकर की जा सकती है। अच्छा पड़ोसी परिवार के किसी भी रिश्तों से कहीं भी कमतर नहीं होता, क्योंकि किसी भी अनहोनी पर दूर रह रहे रिश्तेदारों की फ़ौज बाद में आती है, पड़ोसी सबसे पहले ​हाज़िर मिलता है। बशर्ते आपने उसके साथ एक बेहतरीन पड़ोसी के रिश्ते को बनाया भी हो और ​क़ायम भी रखा हो।

इस्लाम में पड़ोसी के महत्व को ​क़ुरआन से भी साबित किया गया है। स​फ़​र के दौरान सहयात्री भी पड़ोसी का दर्जा रखता है और उसके भी ​हुक़ूक़ तय कर दिए गए हैं। पड़ोसी के साथ अच्छे व्यवहार का विशेष रूप से आदेश है। पवित्र क़ुरआन के अनुसार- 'और लोगों से बेरुख़ी​ न करें।' – (अल-क़ुरआन, ३१:१८) न केवल निकटतम पड़ोसी के साथ, बल्कि दूर वाले पड़ोसी के साथ भी अच्छे व्यवहार की ​ताक़ीद आई है। क़ुरआन के अनुसार, 'और अच्छा व्यवहार करते रहो माता-पिता के साथ, सगे संबंधियों के साथ, अबलाओं के साथ, दीन-दुखियों के साथ, निकटतम और दूर के पड़ोसियों के साथ भी।' – (अल-क़ुरआन, ४:३६) पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने के संबंध में इस ईश्वरीय आदेश के महत्व को पै​ग़​म्बर मोहम्मद साहब ने भी कई तरह से समझाया है। ऐसा नहीं कि उन्होंने इसे ​सिर्फ़​​ समझाया हो बल्कि आपने ​ख़ुद भी उस पर अमल करके बताया। हदीस शरी​फ़​ में उल्लेखित एक बार का वा​क़​या है कि, पै​ग़​म्बर मोहम्मद साहब अपने मित्रों के साथ किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। आपने अपने मित्रों से ​फ़​रमाया-'अल्लाह की ​क़​सम, वह मोमिन नहीं! अल्लाह की ​क़सम, वह मोमिन नहीं! अल्लाह की ​क़​सम, वह मोमिन नहीं!' मोहम्मद साहब ने तीन बार इतना बल देकर कहा तो मित्र सहाबियों ने पूछा- 'ऐ अल्लाह के रसूल, कौन?' आपने ​फ़​रमाया- 'वह जिसका पड़ोसी उसकी शरारतों से सुरक्षित न हो।' एक अवसर पर आपने ​फ़रमाया- 'तुममें कोई मोमिन नहीं होगा जब तक अपने पड़ोसी के लिए भी वही पसंद नहीं करे जो अपने लिए पसंद करता है।' अर्थात, पड़ोसी से प्रेम न करे तो ईमान तक छिन जाने का ​ख़​तरा रहता है। एक और स्थान पर आपने ​फ़​रमाया- 'जिसको यह प्रिय हो कि अल्लाह और उसका रसूल उससे प्रेम करें या जिसका अल्लाह और उसके रसूल से प्रेम का दावा हो, तो उसको चाहिए कि वह अपने पड़ोसी के साथ प्रेम करे और उसका ह​क़​ अदा करे।' अर्थात, जो पड़ोसी से प्रेम नहीं करता, उसका अल्लाह और रसूल से प्रेम का दावा भी झूठा है और अल्लाह और रसूल से प्रेम की आशा रखना भी एक भ्रम है। मोहम्मद साहब ने ​फ़​रमाया, '​क़​यामत के दिन ईश्वर के न्यायालय में सबसे पहले दो वादी उपस्थित होंगे जो पड़ोसी होंगे। उनसे एक-दूसरे के संबंध में पूछा जाएगा।' अब मुसलमानों से यह सवाल किया जा सकता है कि क्या आप क़ुरआन, सुन्नत, हदीस के पैमाने पर सच्चे मुसलमान हैं या फिर केवल नाम भर रख लेने से आप मुसलमान हो गए हैं?

आज के हिंसक दौर में आम मुसलमानों के व्यवहार से क्या इस बात की कल्पना की जा सकती है कि वह अपने नबी की सीख पर अमल करे। एक और वा​क़​ये की बुनियाद पर आम मुसलमान इस बात पर आत्मचिंतन करें। एक बार पै​ग़​म्बर मोहम्मद साहब के साथी ने आपसे शिकायत की कि, 'ऐ अल्लाह के रसूल, मेरा पड़ोसी मुझो सताता है।' आपने ​फ़​रमाया- 'धैर्य से काम लो।' इसके कुछ दिनों बाद वह फिर आया और दोबारा शिकायत की। आपने ​फ़​रमाया- 'जाकर तुम अपने घर का सामान निकालकर सड़क पर डाल दो।' साथी ने ऐसा ही किया। आने जाने वाले उनसे पूछते तो वह उनसे सारी बातें बयान कर देते। इस पर लोगों ने उन सहाबी के पड़ोसी को आड़े हाथों लिया तो उसे बड़ी शर्म का एहसास हुआ। वह अपने पड़ोसी को मनाकर दोबारा घर में वापस लाया और वादा किया कि अब वह उसे न सताएगा। अर्थात पैग़​म्बर ने झगड़े-फसाद के बजाय धैर्य की शिक्षा दी। उन्होंने आम ​ग़ैर मुस्लिमों के साथ इंसानी बुनियादों पर बेहतर नैतिकता और भाईचारे के व्यवहार की हिदायत दी। यही नहीं, किसी की बीमारी के ​वक़्त उसका हाल पूछना भी नबी की सुन्नत है। ह​ज़​रत मोहम्मद साहब के ​ख़ुद एक यहूदी नौजवान जो आप की ​ख़िदमत करता था और उन पर कूड़ा फेंकने वाली वृद्धा की अयादत के लिए जाने का वा​क़​या मिसाल है । ​ग़ैर मुस्लिम भाई इन घटनाओं को पढ़कर चकित होकर सोच सकते हैं कि क्या सचमुच एक मुसलमान को इस्लाम धर्म में इतनी सहनशीलता और मित्रता की ता​क़ी​द है और क्या वास्तव में वह ऐसा कर सकता है। क्योंकि उसने तो उन सरफिरे लोगों को मुसलमान समझ लिया है जो धर्म के नाम पर हिंसा को न सिर्फ जाय​ज़​ ठहराते फिरते हैं बल्कि, वैसा ही करते भी हैं।

कट्टरपंथी मुसलमानों के अमल की बुनियाद पर ​ग़ैर-मुस्लिम भाइयों को यह भ्रम है कि पड़ोसी का अर्थ केवल मुसलमान पड़ोसी से है, ​ग़ैर-मुस्लिम पड़ोसी से नहीं। उनके इस भ्रम को दूर करने के लिए कई घटनाओं में से एक ही घटना लिख देना पर्याप्त होगा। एक बार कुछ फल पै​ग़​म्बर मोहम्मद साहब के पास उपहारस्वरूप आए। आपने सबसे पहले उनमें से एक हिस्सा अपने यहूदी पड़ोसी को भेजा और बा​क़ी​ हिस्सा अपने घर के लोगों को दिया। क्या सच्चे मुसलमानों से ऐसे धैर्य, ऐसे प्रेम, ऐसे रिश्तों को सहेज कर रखने वाली भावना की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए? निसंदेह इस्लाम धर्म और अल्लाह के रसूल ने ऐसी ही ता​क़ी​द ​फ़​रमाई है और इस्लाम के सच्चे अनुयायी इसके अनुसार अमल भी करते हैं। अब भी ऐसी पवित्र भावनाओं वाले लोग इस्लाम के अनुयायियों में मौजूद है जो इन बातों पर पूरी तरह अमल करते हैं। हाँ, आज का अधिकांश मुसलमान राह चलते अनजाने में लगे धक्के पर मरने-मारने पर उतारू हो जाता है। क्या सच्चे मुसलमान की यह परिभाषा है? नहीं, इस्लाम को मानने वाला ऐसा नहीं हो सकता। ​ख़ासकर बे​क़​सूरों का क़त्ल करने वाले इस पैमाने पर कैसे ​ख़ुद को मुसलमान साबित करेंगे। मोहम्मद साहब का तो इरशाद है कि, 'तुममें से कोई मुसलमान नहीं हो सकता जब तक वह लोगों के लिए उसी व्यवहार और रवैये को पसंद न करे जो अपने आपके लिए पसंद करता है।' क्या आम मुसलमान इस बात पर ​ग़ौर करेगा या अब भी कट्टरपंथियों की शिक्षा को अपनाते हुए न​फ़​रतों की बुनियाद पर समाज में भेद फैलाता फिरेगा। अगर वह क़ुरआन की शिक्षा और नबी की नसीहतों के ​ख़िलाफ़ अमल करता है तो उसे ​ख़ुद इस बात का मुतालआ करना चाहिए कि, क़ुरआन ने ऐसे लोगों को किस श्रेणी में रखा है।