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मुसलमानों की 'राजनीतिक प्रासंगिकता' पर ग्रहण / सैयद सलमान
Thursday, February 22, 2024 - 9:09:52 AM - By सैयद सलमान

मुसलमानों की 'राजनीतिक प्रासंगिकता' पर ग्रहण / सैयद सलमान
मुसलमानों को यह टीस सालती है कि उनके अपने समाज का कोई प्रतिनिधि उनका नेतृत्व ठीक ढंग से नहीं करता
साभार - दोपहर का सामना 16 02 2024

देश भर में ध्रुवीकरण की सोची-समझी राजनीति से मुस्लिम समाज में एक प्रकार का भय और चिंता का माहौल है। आए दिन किसी न किसी बहाने यह विषय निकल ही आता है। मुस्लिम समाज में यह बात घर करती जा रही है कि, उनके साथ भविष्य में सब कुछ ठीक नहीं होने जा रहा। जिस प्रकार की आक्रामक सियासत हो रही है, उसमें मुस्लिम समाज ही सबसे बड़ा निशाना है। चुनाव में मतदाताओं का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण एक प्रमुख चिंता का विषय बन गया है। मुस्लिम सार्वजनिक हलक़ों में यह बहस अक्सर देखने को मिलती है कि, चुनावी राजनीति में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कौन कर सकता है? किस पार्टी में उन्हें साथ लेकर चलने की सलाहियत है? 'मुस्लिम तुष्टिकरण' और 'मुस्लिम वोट बैंक' की अवधारणाओं के इर्द-गिर्द निर्मित राजनीतिक बिसात का कोई अंत दिखाई नहीं दे रहा है, बल्कि इसे 'इस्लामोफ़ोबिया' जैसे नए नाम देकर स्थिति और ख़राब कर दी गई है। कुछ वर्ष पहले एक मुस्लिम सांसद ने सुझाव दिया था कि मुसलमानों को कुछ समय के लिए चुनावी राजनीति से हट जाना चाहिए, क्योंकि भाजपा ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को चुनावी रणनीति के रूप में इस्तेमाल करते हुए मुसलमानों की 'राजनीतिक प्रासंगिकता' पर ग्रहण लगा दिया है। लेकिन सोशल मीडिया और पारंपरिक समाचार मीडिया पर कई राजनीतिक विश्लेषकों और बुद्धिजीवियों ने इस नुस्ख़े को निराशावाद और यहां तक कि कायरता का संकेत बताकर ख़ारिज कर दिया था।

अक्सर मुस्लिम समाज की यह राय होती है कि सिर्फ़ मुस्लिम नेता ही चुनावी रूप से मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। लेकिन देखा यह भी गया है कि संसद में या विभिन्न विधानसभा-विधानपरिषद में ग़ैर-मुस्लिम प्रतिनिधियों द्वारा मुस्लिम हितों का बेहतर प्रतिनिधित्व किया गया है। लेकिन, मुसलमानों को यह टीस सालती है कि उनके अपने समाज का कोई प्रतिनिधि उनका नेतृत्व ठीक ढंग से नहीं करता। सभी वैधानिक सदनों में तक़रीबन हर राज्य में मुस्लिम प्रतिनिधि लगातार कम होते जा रहे हैं। भाजपा ने मुस्लिम उम्मीदवार देना ही बंद कर दिया है। बात केवल यहां तक होती तब भी ठीक था क्योंकि यह उनकी अपनी पार्टी का निर्णय है, लेकिन सार्वजनिक मंचों से इस बात का गर्व से बखान किया जाता है। यह और कुछ नहीं मुसलमानों को उनकी औक़ात बताने का उनका अपना तरीक़ा है। अगर विपक्ष इस मुद्दे पर बात करे या अपना उम्मीदवार मुसलमान को बनाए तो उसे मुस्लिम तुष्टिकरण कहकर उसकी गंभीरता ख़त्म कर दी जाती है। स्थितियां ऐसी बना दी गई हैं कि मुस्लिम मतदाता ही अब धर्मनिरपेक्षता को क़ायम रखने के लिए पूरी तरह ज़िम्मेदारी उठाए और हिंदू भाइयों को इस क़दर भड़का दिया जाए कि वह मुसलमानों के नाम तक से नफ़रत करने लगें। मुसलमानों को लगता है कि साल २०१४ के बाद, पारंपरिक रूप से एक मुस्लिम विरोधी पार्टी सत्ता में आई है। चुनाव परिणामों ने मुसलमानों के 'लगातार कम होते प्रतिनिधित्व' की गंभीरता का भी संकेत दिया है। उनके कम प्रतिनिधित्व का उनके विकास परिणामों पर निराशाजनक प्रभाव भी पड़ा है। हालांकि होना यह चाहिए कि चुनावी राजनीति को पूरी तरह से सांप्रदायिकता से मुक्त रखा जाए। ध्रुवीकरण की यह राजनीति देश और उसके भविष्य के लिए हानिकारक है।

देश भर की विपक्षी पार्टियों के साथ-साथ अधिकांश मुसलमान भी इस बात से सहमत हैं कि, भाजपा का विरोध करने और उसे सत्ता में लौटने से रोकने की तत्काल आवश्यकता है। लेकिन ज़्यादा पर्याय नहीं होने की वजह से मुसलमान राज्यवार किसी न किसी दल के साथ जुड़ जाता है। मुस्लिम मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग 'चतुराई पूर्ण मतदान' यानी 'स्मार्ट वोटिंग' करने के प्रति भी सावधान है और नेताओं के बहकावे में अपने वोट को विभाजित नहीं होने देना चाहता। लेकिन यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि, यदि मुसलमान चतुराई से मतदान करते भी हैं, तो वे वास्तव में 'अधिक योग्य' ग़ैर-मुस्लिम उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान करते हुए कथित 'प्रतीकात्मक मुस्लिम' उम्मीदवारों को अस्वीकार कर रहे होते हैं। मुस्लिम लीग से लेकर एमआईएम तक को मुसलमानों से यही शिकायत रहती है कि, वे मुस्लिम नवाज़ पार्टियों की बनिस्बत ग़ैर-मुस्लिम नेताओं को वोट देते हैं। शिकायत जायज़ है या नहीं यह अलग से बहस का विषय हो सकता है, लेकिन मुसलमानों का लक्ष्य उस समय भाजपा उम्मीदवारों को हराने का होता है। वह सेक्युलर और मुसलमानों को सुरक्षा देने की गारंटी देने वाले उम्मीदवार को वोट देते हैं, भले ही वह ग़ैर-मुस्लिम ही क्यों न हो। इस से वह सांप्रदायिक होने के आरोप से भी बचते हैं। हालांकि यह नकारात्मक पैटर्न की वोटिंग ही उसे भाजपा का दुश्मन भी बनाती है। ग़ौर करने वाली बात है कि मुसलमानों ने आज़ादी के बाद कुछ हद तक मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के बाद राष्ट्रीय स्तर पर किसी मुसलमान राजनीतिज्ञ को अपना राष्ट्रीय नेता नहीं माना।


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)