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नई शिक्षा नीति- बदल जाएगा शिक्षा का स्वरूप / डा. विजय मिश्र
Friday, July 31, 2020 - 12:06:36 PM - By डा. विजय मिश्र

नई शिक्षा नीति- बदल जाएगा शिक्षा का स्वरूप / डा. विजय मिश्र
डा. विजय मिश्र
लगभग साढ़े तीन दशक के बाद भारत सरकार ने अपनी शिक्षा नीति मे बदलाव किया है,
सरकार की किसी भी नीति का  मकसद होता है, समस्याओं को पहचानना और उनका बेहतर समाधान।

नई शिक्षा नीति इस कसौटी पर कमोबेश खरी उतरती दिख रही है। मौजूदा वक्त में शिक्षा की घटती गुणवत्ता देश की सबसे गंभीर समस्या है। नई शिक्षा नीति इस पर ध्यान देने का प्रयास कर रही है।

सबसे बड़ा और अहम सवाल यह है कि इसे व्यावहारिकता की जमीन पर उतारना कितना आसान है?
इसका जवाब खोजने से पहले हमें शिक्षा क्षेत्र की घटती गुणवत्ता की वजहों पर गौर करना होगा।

हमारा शिक्षा क्षेत्र योग्य शिक्षकों की कमी से लगातार जूझ रहा है। एक सर्वे के अनुसार ज्यादातर छात्र शिक्षक/ शिक्षिका बनने को अपनी प्राथमिक पसंद नही मानते हैं, वो अन्य क्षेत्रों मे कार्य करना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। एक तरह से शिक्षक बनना उनके कॅरिअर प्लानिंग का आखिरी विकल्प होता है।

 उनको प्रशिक्षण देने वाले बीएड और डीएलएड कॉलेज शिक्षा माफिया के गढ़ बन गए हैं। इनमें से कई कॉलेज तो ऐसे हैं, जो अस्तित्व में ही नहीं हैं, लेकिन डिग्रियां खूब बांटते हैं। यहां से प्रशिक्षण पाने वाले शिक्षक बच्चों को कैसी शिक्षा दे पाएंगे, यह आसानी से समझा जा सकता है।
नई शिक्षा नीति इस परंपरा को तोड़ने के लिए प्रतिबद्ध दिखती है। अब राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद शिक्षकों के लिए पेशेवर मानक तो तैयार करेगा ही, टीचर्स ट्रेनिंग के लिए एक नया सिलेबस भी बनाएगा, जिसके कारण शिक्षण-कार्य के लिए कम से कम योग्यता चार वर्षीय इंटीग्रेटेड कोर्स हो जाएगी।
इस पर फैसला तीन साल पहले ही हो गया था, लेकिन नई नीति के माध्यम से अब इसे अमल में लाने का प्रयास हो रहा है।

शिक्षकों का चयन भी एक बड़ी समस्या है। नई शिक्षा नीति इसके लिए चयन परीक्षा की वकालत करती है। इसके अलावा, वह यह भी सुनिश्चित करती है कि चयन के बाद शिक्षक पठन-पाठन में लगातार शामिल रहें और अपनी योग्यता को निखारने के लिए प्रशिक्षण-कार्य करते रहें। स्कूली बच्चों को मातृभाषा में पढ़ने की छूट देना भी एक अच्छी सोच है। हालांकि, इसे व्यावहारिक रूप में अमल में लाना मुश्किल होगा, क्योंकि आज स्कूलों को जितने शिक्षकों की दरकार है, उतने की भी नियुक्ति नहीं हो पा रही है। फिर, मातृभाषा में शिक्षा उपलब्ध कराने से ऐसे शिक्षकों की जरूरत बढ़ जाएगी, जो दो भाषाओं में दक्ष हों। जाहिर है, इन सबके लिए योग्य शिक्षकों के अलावा पर्याप्त धनराशि की भी जरूरत होगी, सरकार ने जीडीपी का ६ प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने की बात कही है, वर्तमान मे ये संख्या ५ प्रतिशत से कुछ कम है।

खराब शैक्षणिक व्यवस्था की दूसरी वजह है,
शिक्षक का ज्यादातर समय सरकारी योजनाओ का प्रसार और उनको लागू  करने मे खर्च हो जाता है, चाहे वो चुनाव हो या कोई डाटा कलेक्शन, प्रशासन उनको एक मजदूर की तरह हर काम मे लगाने को आमादा रहता है।

खराब शैक्षणिक व्यवस्था की तीसरी वजह है,

 बच्चों के आकलन की गलत प्रक्रिया। मौजूदा मूल्यांकन प्रक्रिया से यह पता नहीं चलता कि बच्चा कितना सीख रहा है? इसके लिए अब एक राष्ट्रीय संस्था बनाई जाएगी, जो समय-समय पर मूल्यांकन करेगी। अब तक यह काम एनसीईआरटी के जिम्मे था, जो अच्छा काम तो कर रही थी, मगर एक विशेषज्ञ संस्था बन जाने से हालात और बेहतर होंगे। इस संस्था को न सिर्फ धरातल की समस्याओं का ज्ञान होगा, बल्कि उनके समाधान का मार्गदर्शन भी वह कर सकेगी।

चौथा कारण था, नौनिहालों की शिक्षा पर नाममात्र का ध्यान। अभी तक इस बारे में ज्यादा सोचा ही नहीं गया था, प्री स्कूल एडुकेशन अभी तक किसी भी सरकारी रेगुलेशन के अधीन नही आता था, नई शिक्षा नीति मे  इसको भी आधारभूत शिक्षा मे शामिल किया गया है, जो एक सराहनीय कदम है।

आज सात-आठ साल का बच्चा दिमागी रूप से संयत हो जाता है। ‘अर्ली चाइल्डहुड एजुकेशन’ यानी बच्चों के शुरुआती दिनों की शिक्षा काफी मायने रखती है। नई शिक्षा नीति बताती है कि इसके लिए शिक्षा विभाग और बच्चों की बेहतरी में जुटी संस्थाएं आपस में मिलकर काम करेंगी। 

पाँचवी वजह है, उच्च शिक्षा यानी महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिए होने वाली रस्साकशी। इसी के कारण 10-12वीं की परीक्षा में परीक्षार्थियों को भाषा के पेपर में भी शत-प्रतशित अंक मिलने लगे हैं।
अब चूंकि नई शिक्षा नीति के तहत दाखिले की परीक्षा आयोजित की जाएगी, इसलिए दसवीं-बारहवीं में परीक्षार्थियों पर बनने वाला अंकों का दबाव खत्म हो जाएगा। यह परीक्षा राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होगी, जिससे बच्चे अपनी योग्यता के मुताबिक महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में दाखिला ले सकेंगे।

छठा कारण है, छात्र-छात्राओं का ढर्रे पर सोचना। इससे  शिक्षा को लेकर नीरसता का माहौल बनने लगा था। मगर नई शिक्षा नीति पाठ्येत्तर गतिविधियों और वोकेशनल कोर्स पर पर्याप्त ध्यान दे रही है। इससे बच्चों में परंपरा से हटकर काम करने की सोच विकसित होगी, और आने वाले वर्षों में उनमें यह समझ भी विकसित हो सकेगी कि वोकेशनल कोर्स करने से नौकरी मिलने की संभावना तुलनात्मक रूप से ज्यादा है।

सातवां एक महत्वपूर्ण बदलाव आया है, उच्च शिक्षा मे क्रेडिट सिस्टम, यह एक बड़ा बदलाव है, इससे कॉलेज ड्रॉपआउट रेट मे कमी आयेगी, इसके साथ ही दोबारा शिक्षा शुरू करने वाले विद्यार्थीयो की संख्या बढ़ेगी।

आठवां बदलाव भी बहुत ही महत्वपूर्ण है, अब विद्यार्थी अपनी रुचि के विभिन्न विषय एक साथ पढ़ सकते है, ये व्यवस्था पहले नही थी, मान लीजिये कोई छात्र जो IIT मे पढ़ता है वो अपने मुख्य विषय इंजीनियरिंग के साथ संगीत या संस्कृत भी पढ़ सकेगा।
इससे छात्रो के व्यक्तित्व मे सकारात्मक बदलाव भी आयेगा।

जाहिर है, नई शिक्षा नीति समस्याओं पर तो गौर कर रही है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर उनका आधा-अधूरा समाधान ही पेश कर रही है। इसमें पहली समस्या तो जाहिर तौर पर धनराशि के अभाव की है। पैसों का इंतजाम कैसे होगा, इस पर नई नीति चुप है। इसमें सिर्फ मान लिया गया है कि बजट का इंतजाम हो जाएगा।

फिर, अन्य कठिनाइयां भी हैं, जैसे मातृभाषा में पठन-पाठन की मुश्किलें।

जरूरी था कि शिक्षा की बेहतरी में निजी क्षेत्र के महत्व को पहचाना जाता। आंकडे़ साफ बताते हैं कि निजी स्कूल में जाने वाले छात्र-छात्राओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। माना जाता है कि लगभग 50 प्रतिशत बच्चे अभी निजी स्कूलों में पढ़ाई कर रहे हैं। बेशक, सरकारी स्कूलों की व्यवस्था में सुधार जरूरी है, लेकिन निजी स्कूलों के महत्व को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। नई शिक्षा नीति निजी स्कूलों की बात एकाध जगहों पर करती भी है, तो उन पर नियंत्रण की बात करती है, उनको प्रोत्साहित करने की नहीं।
अगर सरकार इनमें निवेश को प्रोत्साहित करे या निजी-सार्वजनिक सहयोग के तहत निजी स्कूलों को कुछ राहत दे, सरकारी स्कूलों के भवन निजी स्कूलों को निजी सार्वजनिक सहयोग मॉडल पे लीज़ पर दिया जाए तो सकारात्मक परिणाम सामने आ सकते है।
ज्यादातर सरकारी स्कूलों मे शिक्षको की कमी है, सरकार को चाहिए की अपने ६० प्रतिशत विद्यालयो मे इन शिक्षको को नियोक्त कर दे, शेष ४० प्रतिशत विद्यालय भवन निजी सार्वजानिक सहयोग मॉडल मे निजी क्षेत्र को चलाने के लिए दे देना चाहिए। इससे तीन समस्या एक साथ समाप्त हो जायेगी, शिक्षको की कमी से जूझ रहे सरकारी स्कूलों मे ये कमी समाप्त हो जायेगी,  निजी क्षेत्र मे दिये गए स्कूलों मे सरकारी खर्च मे भी कमी आयेगी। तथा इन स्कूलों की शिक्षा की गुणवत्ता मे भी सुधार हो जायेगा।

अगर ऐसा किया जाए तो देश का शैक्षणिक माहौल काफी हद तक सुधर सकता है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि निजी स्कूलों को मनमानी की छूट दे दी जाए। उन पर निगरानी रखते हुए उनका लाभ उठाने की जरूरत है।
नई शिक्षा नीति से इंस्पेक्टर राज के लौटने का भी एहसास होता है।

इसमें उच्च शिक्षा के लिए एक ही नियामक संस्था की वकालत की गई है। तकनीकी रूप से उसे नियामक तो नहीं कहा गया है, लेकिन जिस तरह के दायित्व उसे सौंपे जाने की संभावना है, उससे वह काम नियामक का ही करेगी। इससे भी बचा जाना चाहिए था।

डा. विजय मिश्र

( उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार है, लेखक एक जाने माने शिक्षाविद् एवं इग्निटेड माइंड इंटरनेशनल स्कूल के प्रबंध संचालक हैं)