पश्चिम बंगाल में विपक्ष बेहाल, किस करवट बैठेगा मुसलमानों का ऊंट......? / सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 19 02 2021
बिहार विधानसभा चुनाव के बाद राजनैतिक पंडितों की नज़र पश्चिम बंगाल के चुनाव पर लगी है। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव की चर्चा इन दिनों हर राजनीतिक गलियारे में है, क्योंकि यहां गत दो बार से मुख्यमंत्री रही ममता बनर्जी और पश्चिम बंगाल में सत्ता प्राप्ति के लिए साम, दाम, दंड, भेद के हर पैंतरे आज़मा रही भाजपा के बीच कड़ी टक्कर है। इस बीच पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव से पहले आई एक सर्वे रिपोर्ट में बीजेपी को तगड़ा झटका लगा है। सर्वे में पश्चिम बंगाल की सत्ता में फिर से ममता बनर्जी की वापसी की बात कही गई है। अगर यह रिपोर्ट सही साबित होती है तो तीसरी बार बंगाल की सत्ता पर ममता का क़ब्ज़ा होगा। इस सर्वे ने बीजेपी और अन्य पार्टियों के नेताओं की धड़कन बढ़ा दी है। सभी दल फिर से नये सिरे से रणनीति बनाने में जुट गए हैं। सर्वे से पहले सबसे अधिक उहापोह में मुस्लिम मतदाता था कि वह आख़िर किस तरफ़ जाए। लेकिन इस सर्वे के बाद उसकी रणनीति में भी शायद परिवर्तन आए।
हालांकि इस सर्वे से पहले पश्चिम बंगाल की ख़बरों में दावा किया जा रहा था कि यहां ममता बनर्जी के क़रीबी एक-एक कर टीएमसी से किनारा कर भाजपा में शामिल हो रहे हैं। उसपर तुर्रा यह कि ममता का बड़ा वोट बैंक रहे मुस्लिम मतदाताओं पर एमआईएम भी दावा ठोंक रही है। इस पूरे चुनावी गणित का लेखा-जोखा अगर मुस्लिम मतदाताओं के नज़रिये से देखा जाए तो नतीजे चौंकाने वाले भी हो सकते हैं। लेकिन फ़िलहाल मुस्लिम मतदाताओं का रुख़ अभी स्पष्ट नहीं है। यह बात शीशे की तरह साफ़ है कि पश्चिम बंगाल में मुस्लिम मतों का चुनावी नतीजों पर बड़ा असर होगा। वह असर सकारात्मक भी हो सकता है और अगर जमकर ध्रुवीकरण हुआ तो नकारात्मक रूप में भी सामने आ सकता है। इस पूरे खेल में बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस आमने-सामने तो हैं ही, लेकिन वामपंथी पार्टियों और कांग्रेस से कम ताक़त रखने वाली एमआईएम भी ताल ठोंक कर खड़ी है।
पिछले बिहार चुनाव के नतीजों में काफ़ी कुछ राजनैतिक संदेश छुपा है जहां के चुनाव में २० सीटें लड़कर एमआईएम ने ५ सीटों पर जीत दर्ज की थी। इसके पीछे का एक कनेक्शन पश्चिम बंगाल से यह भी है कि बिहार में एमआईएम को जिन पांच सीटों पर जीत मिली उनमें से चार पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बहुल इलाकों से सटे पूर्णिया और किशनगंज ज़िलों में हैं। पश्चिम बंगाल के जो चार जिले बिहार और झारखंड की सीमा से लगते हैं, उनमें मुर्शिदाबाद में मुस्लिम आबादी ६६.२७ फ़ीसदी है। इसके अलावा मालदा, उत्तर दिनाजपुर और बीरभूम की आबादी में मुसलमान क्रमशः ५१.२७ फ़ीसदी, ४९.९२ फ़ीसदी और ३७.०६ फ़ीसदी हैं। राज्य की २९४ विधानसभा सीटों में से ५४ सीटें इन चार ज़िलों में हैं। इनके अलावा कोलकाता के पड़ोसी ज़िलों उत्तर और दक्षिण २४ परगना में भी मुस्लिम आबादी काफ़ी है। माना जा रहा है कि बिहार की तरह एमआईएम पश्चिम बंगाल में भी खेल बिगाड़ने की ताक़त बनाने के कगार पर आ गई है। जहां तक बात ओवैसी की एमआईएम की है तो एमआईएम से मिलने वाली चुनौती को भांपते हुए ममता बनर्जी २०१९ से ही उसे ‘बाहरी’ और ‘भाजपा की बी-टीम’ कहती आ रही रही हैं। वैसे आश्चर्यजनक तो यह भी है कि, न जाने क्यों वामपंथी पार्टियां और कांग्रेस अब तक अपना माहौल बना पाने में कामयाब नहीं हो पाई हैं। हो सकता है आने वाले दिनों में उनकी रणनीति बदले और सियासी बिसात पर फैलाया गया यह खेल कुछ और कहानी कह जाए।
अगर बात ओवैसी की एमआईएम की करें तो उनकी पार्टी को आगामी चुनाव में दो चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। एक तो ममता से, क्योंकि राज्य के ज़्यादातर मुस्लिम मतदाता स्वाभाविक रूप से तृणमूल के साथ खड़े हैं। उनका शायद यही मानना है कि ममता दीदी ही बीजेपी के सामने खड़ी होने की ताक़त रखती हैं। अपने हाव-भाव और रणनीति से ममता ने यह साबित भी किया है। एमआईएम की दूसरी समस्या भाषा को लेकर है। एमआईएम के बड़े नेता उर्दू और हिंदी मिश्रित भाषा बोलते हैं। उनकी तक़रीरों में हैदराबादी भाषा का तड़का भी होता है। यह बिहार और यूपी के मुसलमानों को तो आकर्षित करता है, लेकिन बंगाल के ज़्यादातर मुसलमान बांग्ला भाषी हैं। इसलिए बांग्ला भाषी नेतृत्व तैयार होने तक एमआईएम को यहां लोगों के साथ जुड़ने में मुश्किल तो आनी ही है। बिहार से सटे ज़िलों में भाषा बड़ी रुकावट बन रही है नहीं तो एमआईएम ने ध्रुवीकरण का बड़ा खेल खेलने की तैयारी तो कर ही रखी है।
ममता के लिए यह राहत की बात है कि एमआईएम जहां पांच वर्षों से बिहार में चुनाव की तैयारी कर रही थी, वहीं बंगाल में अभी वह बेतरतीब स्थिति में है। उसका संगठन बनता-बिगड़ता रहा है। एमआईएम ने २०१९ के लोकसभा चुनाव के बाद सीएए विरोधी आंदोलन के समय पश्चिम बंगाल में अपनी गतिविधियां बढ़ाई तो थीं, लेकिन दिसंबर और जनवरी में हिंसा फैलाने के आरोप में उनके कई नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया। इस वजह से ओवैसी के संपर्क में रहने वाले नेता और कार्यकर्ता भले ही उत्साह में हों लेकिन पार्टी के लिए ज़मीनी परिस्थितियां इतनी मेहरबान नहीं हैं। पश्चिम बंगाल में बरसों से पैर जमाने की कोशिश में लगे ओवैसी बिरादरान की एमएमईएम के नेता और कार्यकर्ता भारी दबाव में या तो पार्टी छोड़ रहे हैं या निष्क्रिय पड़े हैं। एमआईएम की तरफ़ से तृणमूल कार्यकर्ताओं को अपनी पार्टी में शामिल करने की कोशिश होती रही है। हालांकि यह थोड़ा मुश्किल होता है, ऐसे में वे कांग्रेस कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने में लगे हैं।वैसे तृणमूल शासन के दौरान रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफ़ारिशों के अनुसार मुसलमानों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने से ममता की स्थिति सुधरी है। अगर यही स्थिति बनी रहती है तो ममता को लाभ होना निश्चित है।
पश्चिम बंगाल में मुस्लिम मतदाताओं के लिए भी एक चुनौती है। वह चुनौती है मतों के ध्रुवीकरण की। ज़रूरी यह है कि मुस्लिम समाज ध्रुवीकरण से दूर रहकर चुनाव से पहले बेरोज़गारी, मंहगाई वग़ैरह को सबसे बड़ा मुद्दा बनाए। एक सर्वे बताता है कि पश्चिम बंगाल में २६ फ़ीसदी लोगों ने बेरोज़गारी को सबसे बड़ा मुद्दा बताया है। वहीं २० फ़ीसदी लोगों ने महंगाई को मुद्दा बताया है। इसी के साथ-साथ पश्चिम बंगाल के विकास और लोकतांत्रिक अधिकारों की बात हो। पश्चिम बंगाल में बांग्लादेशी मुसलमानों का मुद्दा जब-तब उछलता रहता है उस पर भी ठोस निर्णय और रणनीति बनाई जाए। इस मुद्दे पर ध्रुवीकरण करना आसान हो जाता है, क्योंकि शक्ल-ओ-सूरत, हाव-भाव, पहनावे और बोल-चाल से बांग्लादेशी और पश्चिम बंगाल के मुसलमानों में फ़र्क़ मुश्किल हो जाता है और ध्रुवीकरण के खेल में माहिर पार्टियां आम तौर पर इसका लाभ उठाती हैं। इस बात से शायद ही किसी को इनकार हो कि ध्रुवीकरण होने पर लाभ मुसलमानों का क़त्तई नहीं होता। फिर भी एमआईएम की नज़र बिहार के सीमांचल की तरह पश्चिम बंगाल की हर मुस्लिम बहुल सीट पर है। यानि ममता का आरोप कि एमआईएम ‘भाजपा की बी-टीम’ है, लोगों के गले उतर सकता है।
ध्रुवीकरण का अगर एक पहलू बीजेपी है तो दूसरा एमआईएम, यह स्पष्ट हो चुका है। अगर ऐसा न होता तो एमआईएम का किसी बड़े दल के साथ गठबंधन हो सकता था। सत्य यही है कि बहुसंख्यक मतदाता नाराज़ न हों इसलिए न तो तृणमूल और न ही वाम-कांग्रेस गठबंधन एमआईएम को साथ लेने के लिए तैयार है। इसलिए मुस्लिम तुष्टिकरण, मुस्लिम ध्रुवीकरण, मुस्लिम संरक्षण जैसे किसी भी मुद्दे के झांसे में मुसलमानों को आने की ज़रूरत नहीं है। मुद्दे ढेर सारे हैं जो सामाजिक हैं और जिनका संबंध सीधे हर वर्ग के मतदाता से है। बेरोज़गारी, मंहगाई, शिक्षा, सुशासन जैसे मुद्दों पर मुस्लिम मतदाताओं को ध्यान देने की ज़रूरत है। यही मुद्दे देश भर में होने चाहिए। पश्चिम बंगाल में इन्हीं मुद्दों को ध्यान में रखते हुए मुसलमानों को रणनीति बनानी होगी। मुस्लिम कार्ड खेलकर अपना नुक़सान करा लेना भला कहां की समझदारी है।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)