साभार- दोपहर का सामना 12 02 2021
मुस्लिम समाज में जब भी महिलाओं के ख़िलाफ़ कोई बात करनी हो तो कुछ मुद्दे फ़ौरन हवा में उछाल दिए जाते हैं। हालांकि तीन तलाक़, बहुविवाह और हलाला जैसी कुप्रथाओं पर रोक लगाने की मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवियों की तरफ़ से हमेशा कोशिश होती रही है। इस्लाम के सही जानकार धर्मगुरुओं ने इन प्रथाओं को पवित्र क़ुरआन के नज़रिये से हमेशा ग़लत ठहराया भी है, लेकिन कट्टरपंथी विचारधारा को मानने वाले चुनिंदा धर्मगुरुओं की किताबी बातों और मनगढ़ंत ज़ईफ़ हदीसों के हवाले से यह कुप्रथाएं चलती रहीं। हालांकि शिक्षा के आम होने और मुस्लिम समाज में आई जागरूकता ने इसमें काफ़ी बदलाव के संकेत दिए हैं। अब इन प्रथाओं पर न सिर्फ़ रोक लग रही है बल्कि क़ानूनन कार्रवाई भी हो रही है। मुस्लिम महिलाएं भी जागरूक हुई हैं और इन प्रथाओं के साथ ही अनेक मुद्दों पर मुखर होकर बोल रही हैं। इसमें केवल अपने हक़ की लड़ाई वाली बात न होकर असल इस्लामी शिक्षा का महत्व भी है।
इस दिशा में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने पिता की संपत्ति में बेटियों को अधिकार देने की सकारात्मक मुहिम शुरु की है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की इस पहल को सराहना मिल रही है। बोर्ड इसका प्रचार प्रसार भी ख़ूब कर रहा है। अब तक बेटियों को जायदाद से महरूम रखने वालों को बेटियों का हक़ देने के लिए जागरुक भी कर रहा है। बोर्ड अपनी वेबसाइट सहित सोशल मीडिया के ज़रिये लोगों तक 'तरका' यानि पिता की संपत्ति में बेटियों का हिस्सा देने के बारे में जानकारी दे रहा है। बोर्ड की तरफ से अपील की जा रही है कि अपने वारिसों को तरका से वंचित न करे और उनका हक़ अदा करें। इसका सबसे कारगर तरीक़ा यह है कि उलेमा कम से कम एक बार मस्जिद में जब जुमा की नमाज़ के लिए नमाज़ी इकठ्ठा हों तो अपने ख़ुतबे में भी तरका के लिए लोगों को जागरूक करने की पहल करें। बोर्ड इस तरह के कई तरीक़े अपनाने पर ज़ोर दे रहा है। लोगों को बताया जा रहा है कि जो शख़्स अपने वारिस को संपत्ति में उसके हिस्से से वंचित कर दे, क़यामत के दिन वह जन्नत से वंचित कर दिया जाएगा।
क़ुरआन और हदीस में जो तालीम दी गई है या एक बेहतर इंसान को लेकर जो क़ानून बने हैं उन्हें शरीयत कहा गया है और शरीयत ने पिता की संपत्ति में बेटे के साथ बेटियों का हिस्सा भी दिया है। आम तौर पर पाया जाता है कि महिला उत्तराधिकारी के हिस्से की मात्रा पुरुष उत्तराधिकारी के हिस्से का आधा हिस्सा होता है। शरीयत के अनुसार पिता की संपत्ति में दो भाग बेटे का जबकि एक भाग बेटी का होता है। इस फ़र्क़ के पीछे का कारण यह है कि शरई कानून के तहत एक महिला शादी के बाद अपने पति से 'महर' और 'नान नफ़्क़ा' यानि रोटी, कपड़ा, घर और रख-रखाव का ख़र्च भी प्राप्त करती है, जबकि पुरुष के पास केवल विरासत के लिए पूर्वजों की संपत्ति ही होती है। इस लिहाज़ से पत्नी के रूप में महिलाएं पति की संपत्ति के १/८ वें हिस्से और मां के रूप में १/६ वें हिस्से की हक़दार होती हैं। मुस्लिम महिलाओं को पैतृक संपत्ति और पति की संपत्ति यानि दोनों तरफ़ से वाजिब हक़ का प्रावधान शरीयत ने कर रखा है। शरीयत की इस व्याख्या को अक्सर मुस्लिम समाज ने अनदेखा किया है। एक धारणा जो अमूमन हर धर्म में या समाज में बन गई है कि लड़की तो 'पराया धन' होती है इसलिए विवाह के बाद उसका पैतृक संपत्ति में कोई हक़ नहीं रह जाता। यह नज़रिया सर्वथा गलत है। तरका अथवा विरासत को लेकर अक्सर घरेलू विवाद की स्थितिया भी पैदा हो जाती है। कई लोग जानबूझ कर जबकि कई लोग जागरूकता की कमी के चलते लड़कियों को शरीयत में दिए इस अधिकार से वंचित रखते हैं। आपस में न सुलझने पर कई मामले शरई अदालत तक पहुंच जाते हैं। शरई अदालतों ने तरका को लेकर लड़कियों को पक्ष में कई फ़ैसले भी किए हैं। लेकिन फिर भी मुसलमानों में न जाने क्यों इस बात को अब तक नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है।
जहां तक बात भारतीय संविधान की है तो संविधान का आर्टिकल १४ सभी नागरिकों को समानता का हक़ देता है। सामाजिक और क़ानूनी पहलुओं के बीच देश के हिंदू, मुस्लिम और ईसाइयों के कुछ निजी क़ानून भी होते हैं, जिन्हें पर्सनल लॉ के नाम से जाना जाता है। इस क़ानून में संपत्ति के अधिकार भी शामिल होते हैं। हालांकि भारत में मुसलमानों के संपत्ति अधिकार सूचीबद्ध नहीं है। वह मुस्लिम क़ानून की दो संस्थाओं के तहत आते हैं, एक सुन्नी और दूसरे शिया। सुन्नी संस्था केवल उन रिश्तेदारों को वारिस के रूप में मानती है, जिनका पुरुष के माध्यम से मृतक से संबंध होता है। इसमें बेटे की बेटी, बेटे का बेटा और माता-पिता आते हैं। दूसरी ओर शिया संस्था ऐसा कोई भेदभाव नहीं करती। इसका मतलब है कि जिन वारिसों का मृतक से संबंध महिलाओं के ज़रिए है, उन्हें भी अपना लिया जाता है। इस बात को दोनों पंथों द्वारा अपनी-अपनी समझ और क़ुरआन की व्याख्या से साबित भी किया जाता है।
दरअसल शरीयत तो यही कहती है कि मुस्लिम समाज में पुरुषों और महिलाओं के अधिकारों के बीच कोई अंतर नहीं किया जाना चाहिए। इस्लामी क़ानून के मुताबिक़ अपने पूर्वजों की मृत्यु पर, कोई भी बेटे और बेटी दोनों को विरासत में मिली संपत्ति के क़ानूनी उत्तराधिकारी बनने से नहीं रोक सकता। इसके अलावा, पुरुषों पर अपनी पत्नी और बच्चों का ख़्याल रखने का कर्तव्य भी है। यहां तक कि शरई क़ानून के तहत, किसी विधवा को भी उत्तराधिकार से बाहर नहीं रखा जा सकता। एक बेऔलाद मुस्लिम विधवा, मृतक पति के अंतिम संस्कार और क़ानूनी ख़र्च और क़र्ज़ चुकाने के बाद उसकी संपत्ति में एक चौथाई की हक़दार होती है। जबकि वह विधवा जिसके पास बच्चे या पोते हैं, मृतक पति की संपत्ति में आठवें हिस्से की हक़दार है। इसी के साथ अपनी मां के गर्भ में एक बच्चा भी वारिस बनने के लिए सक्षम माना गया है। इस्लामी नुक़्ता-ए-नज़र से भ्रूण में बच्चा एक जीवित व्यक्ति के रूप में माना जाता है और उस हैसियत से, उस बच्चे का संपत्ति में तत्काल हक़ रख दिया गया है। इस्लाम ने इतनी बारीकी से सभी के लिए हक़ निर्धारित किए हैं। यह अलग बात है कि मुसलमानों का बड़ा तबक़ा इन बातों को मानने से परहेज़ करता है।
सच्चाई यही है कि फिर क़ुरआन और हदीस की अनदेखी करने वाले मुसलमान कहलाते कैसे हैं? शरीयत की व्याख्या को लेकर भी अक्सर विवाद इसलिए होते हैं क्योंकि जहां फ़ायदा है उसे मुसलमान बड़ी आसानी से अपना लेता है और जहां सख़्ती है उसे अपनाने से बचता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वर्तमान में मुस्लिम समाज में शरीयत का मतलब विभिन्न क्षेत्रों में अपना प्रभुत्व साबित करने और सत्ता स्थापित करने तक ही रह गया है जबकि कठोर दंड दिए जाने की व्यवस्था से मुस्लिम समाज परहेज़ करता है। मुस्लिम महिलाओं पर सख़्ती का तो समर्थन किया जाता है लेकिन पुरुषों के साथ नज़रिया बदल जाता है। यदि ऐसा नहीं होता तो पुरुषों के मामले में चोरी, बलात्कार, हत्या जैसे जघन्य अपराधों में शरीयत का प्रमाण क्यों नहीं दिया जाता? अधिकांश मुस्लिम देशों में शरीयत क़ानून केवल निकाह, तलाक़, विरासत और बच्चों की देखभाल जैसे निजी मामलों तक ही मर्यादित होकर रह गया है। सबसे अधिक बहस महिलाओं के अधिकारों पर होती है जिन्हें शरीयत के नाम पर अत्यंत संकीर्ण दायरे में मर्यादित कर दिया गया है। महिलाओं को यदि समान अधिकार नहीं दिया जाता है तो आधुनिक दुनिया में आधी जनसंख्या के साथ अन्याय होगा। क्या आज के युग में कोई आधुनिक समाज मुस्लिम समाज की इस सुविधानुसार अपनाई गई हठधर्मिता को पसंद करेगा? बिलकुल नहीं। तीन तलाक़, बहुविवाह, हलाला और विरासत जैसे अनेक मुद्दे हैं जिन पर मुस्लिम महिलाओं के साथ ही मुस्लिम समाज के धर्मगुरुओं, समाजसुधारकों, बुद्धिजीवियों और उलेमा को खुलकर बोलना होगा। समाज में महिलाओं को सम्मान और उनका हक़ दिलाने के साथ ही उनका उत्पीड़न रोकने के लिए पूरे मुस्लिम समाज का चिंतन ज़रूरी है। विरासत में महिलाओं का हक़ देना उसी कड़ी का एक हिस्सा है।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)