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बेक़सूर को मारना, पूरी इंसानियत को मारने जैसा ! / सैयद सलमान
Friday, January 8, 2021 2:50:55 AM - By सैयद सलमान

पाकिस्तान में हज़ारा शिया समुदाय के ११ खनन मज़दूरों का आतंकियों ने किया क़त्ल
साभार- दोपहर का सामना 08 01 2021


पूरे विश्व को इंतज़ार था नए साल में तारीख़ बदलने का, ताकि कोविड-१९ की मार से परेशान साल २०२० बीते और वर्ष बदलने के साथ २०२१ में भाग्य बदलने का मनोवैज्ञानिक आनंद लिया जा सके। महामारी के फैलते ही विश्व की कई बड़ी हस्तियों ने कहा था कि २०२० का बीत जाना और २०२१ में जीवित प्रवेश कर जाना ही आम जनता की कमाई होगी। सप्ताह बीत गया लेकिन नववर्ष की ख़ुमारी पूरे विश्व में अब भी देखी जा रही है। लेकिन वह पाकिस्तान ही क्या जहां दुनिया से हटकर कुछ न हो। पाकिस्तान की सरज़मीन मानो नफ़रत का वह बारूद है जो कभी सियासी, कभी जातीय तो कभी आपसी फ़िरक़ेबाज़ी की हिंसा में इस्तेमाल होता रहता है। अगर ऐसा न होता तो पाकिस्तान के बलूचिस्तान में नए साल की शुरुआत ही हिंसा से न हुई होती। वहां के पेशेवर आतंकियों ने नववर्ष के पहले सप्ताह में ही पहले तो हज़ारा शिया समुदाय के ११ मज़दूरों को अगवा किया फिर उनकी हत्या कर दी। आतंकियों की हिंसा का शिकार यह ११ लोग कोई धार्मिक, सामाजिक या राजनैतिक व्यक्ति या बड़े आदमी नहीं थे बल्कि ये सभी कोयला ख़दान में काम करने वाले मज़दूर थे। ऐसा नहीं कि यह कोई मामूली आतंकी कार्रवाई थी, बल्कि आतंकियों ने ग़ैर-शिया मज़दूरों को छोड़ दिया और छांटकर हज़ारा शियाओं को ही साथ ले जाकर क़त्ल कर दिया। यानि उनका निशाना केवल एक विशेष विचारधारा थी।

अशांत प्रांत बलूचिस्तान में इस से पहले भी इस समुदाय के साथ लगातार हिंसा होती रही है। जब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी शासन था, तब भी हज़ारा शियाओं पर ज़ुल्म होते थे। मूलरूप से यह समुदाय काफ़ी मेहनती और शारीरिक तौर पर मज़बूत माना जाता है। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो यह समुदाय आमतौर पर पाकिस्तान की मुख्यधारा में नहीं शामिल हो सका है। दरअसल हज़ारा शिया समुदाय के लोग अफ़ग़ानिस्तान की तीसरी सबसे बड़ी आबादी माने जाते हैं। पाकिस्तान और ईरान में भी इनकी बड़ी तादाद है। पाकिस्तान में ये बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा में बसे हुए हैं, लेकिन इन्हें न तो पाकिस्तान ने अपनाया और न ही अफ़ग़ानिस्तान ने। ऐसे में यह पाकिस्तान के एक बड़े तबके की आँखों में किरकिरी बन गए हैं। अफ़ग़ानिस्तान में हिंसा झेलते हुए इस समुदाय का बड़ा हिस्सा वहां से जान बचाकर भागा और पाकिस्तान और ईरान में शरण ली। ईरान ने तो शिया होने के कारण इन्हें स्वीकार कर लिया, लेकिन पाकिस्तान नहीं अपना सका। अपनी पेशेवराना ख़ासियत के कारण इनका खनन जैसे कामों में इस्तेमाल होता है। ताज़ा मामले में इन्हीं खनन मज़दूरों का ही आतंकियों ने क़त्ल किया है। इस्लाम और इंसानियत के लिए इस से बड़ा धोखा और क्या होगा कि बेक़सूर इंसानों का क़त्ल किया जाए और नाम इस्लाम का लिया जाए।

जब-तब पाकिस्तान की तरफ़ से भारत के भीतर भी आतंकी कार्रवाइयों को अंजाम दिया गया है। २६/११ के अलावा मुंबई में अनेक सीरियल ब्लास्ट सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आतंकी कार्रवाई के पीछे पाकिस्तान का हाथ होने की सच्चाई किसी से छुपी नहीं है। धरती के स्वर्ग कश्मीर को तो जहन्नम बनाने में पाकिस्तान ने अपनी पूरी ताक़त लगा दी। दरअसल पाकिस्तान की स्थिति कुछ ऐसी है जैसे 'आँख के अंधे, नाम नयनसुख।' पाकिस्तान यानि पाक अथवा पवित्र स्थान। लेकिन नाम रख लेने से क्या होगा, पाकिस्तान के कर्म तो पापिस्तान कहलाने लायक़ हैं। उसी पाकिस्तान में जहां कुछ सालों पहले जगह-जगह एक बात आम थी कि पाक यानी शुद्ध लोगों की जगह और यहां शिया या हजारा शिया समुदाय को बसने नहीं दिया जाएगा। दरअसल पाकिस्तान सुन्नी बहुल देश है और पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसियों पर हमेशा आरोप लगते रहे हैं कि उसने शिया मुसलमानों पर निशाना साधने वाले सुन्नी चरमपंथियों को बढ़ावा ही दिया है। पाकिस्तान के बहुमत का ये आरोप है कि पाक से अलग होने के सपने देख रही बलूच लिबरेशन आर्मी को शिया देश ईरान का समर्थन मिला हुआ है। इसलिए शिया समुदाय पर ज़ुल्म कर वह ईरान को तनाव देते रहना चाहता है। ईरान की ज़्यादातर आबादी शिया है और धार्मिक कारणों के अलावा अनेक मुद्दों पर दोनों देशों के बीच अक्सर तनाव रहता है। रोचक तथ्य यह है कि दोनों मुल्क इस्लामी मुल्क होने का दावा करते हैं।

यह भी सत्य है कि पाकिस्तान में पिछले कुछ सालों में शिया मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा काफ़ी बढ़ी है। इस दौरान सैकड़ों की संख्या में शिया मुसलमानों की सिर्फ़ हत्या ही नहीं की गई बल्कि हत्या करने के बाद हत्यारे ख़ून से ही शियाओं के घर के बाहर 'शिया काफ़िर हैं' भी लिखते हैं। सबसे पहले तो यह जान लेना ज़रूरी है कि 'काफ़िर' शब्द 'कुफ़्र' से बना है, जिसका अर्थ है, छिपाने वाला, अकृतज्ञ, नाशुक्रा और इनकार करने वाला। अल्लाह/ईश्वर के अस्तित्व और उसके बताए गए रास्ते पर न चलना उससे बग़ावत करने के सामान है, अर्थात 'काफ़िर' उसे कहते हैं जो ईश्वर को पहचान कर भी अपने अहम् या दुष्टों की बातों में आकर या किसी और कारणवश उसके होने का या उसके किसी आदेश का इनकार करे। पिछले करीब १४०० सालों से काफ़िर शब्द हमेशा विवाद और झगड़े का केंद्र रहा है। लेकिन यह अधिकार किसी भी मुसलमान को नहीं दिया गया कि वह किसी को काफ़िर कह सके।

चूँकि बात शिया-सुन्नी की हो रही है और पाकिस्तान के सुन्नी अगर शिया समुदाय को काफ़िर कहकर क़त्ल करते हैं तो क्या उन्होंने क़ुरआन के बाद सबसे अधिक मान्य हदीस सहीह बुख़ारी शरीफ़ की जिल्द-७ और हदीस क्रमांक-६०४५ को कभी ग़ौर से पढ़ा है? इस हदीस में साफ़ तौर पर लिखा है कि, "अबू ज़र (र.अ.) से रिवायत है कि रसूल अल्लाह ने फ़रमाया कि अगर कोई शख़्स किसी को काफ़िर या फ़ासिक़ कहे और वो हक़ीक़त में काफ़िर या फ़ासिक़ ना हो तो ख़ुद कहने वाला काफ़िर या फ़ासिक़ हो जाएगा।" दरअसल काफ़िर वह है जो ईश्वर के होने से इनकार करे या सामजिक समरसता, नेकी करने, बुराई का बदला भलाई से देने, ज़ुल्म न करने जैसी ईशदूत पैग़म्बर मोहम्मद साहब की शिक्षा से इनकार करे। क्या कोई मुसलमान पूरी तरह इन बातों को अपनाने का दावा कर सकता है? अगर ऐसा कर सके तो वह सचमुच नबी का उम्मती कहलाने का हक़दार हो जाएगा और तब उसके लिए किसी के प्रति मन में कोई भेद ही न रह जाएगा। वह इंसानी रिश्ते की बुनियाद पर सभी से प्रेम करेगा। क़त्ल तो उसकी सोच के दायरे से बाहर की बात होगी।

अफ़सोस की बात यही है कि इस्लाम की मूल शिक्षा में जब व्यक्ति के विचारों को प्राथमिकता मिलनी शुरू हुई तभी से फ़साद शुरू हुआ। नबूवत के ख़त्म होने के ऐलान के बाद से बढ़ा मतभेद वर्तमान में इस क़दर बढ़ गया है कि एक अल्लाह, एक क़ुरआन, एक नबी को मानने वाला मुसलमान भी एक नहीं है। इसका कारण कई धार्मिक गुरुओं की लिखी पुस्तकें और उनके कट्टरपंथी विचार हैं जो आपस में मुसलमानों को ही नहीं बल्कि मुसलमानों को ग़ैर-मुस्लिम भाइयों से भी दूर करते हैं। मुसलमानों को इस बात को स्वीकार करना होगा कि तालिबान, अलक़ायदा और लश्कर-ए-तैयबा जैसे कट्टरपंथी संगठन इस्लाम की पैरवी नहीं करते बल्कि इस्लाम के नाम पर अपनी दुकान चमकाते हैं। हथियारों के सौदागर देश उन्हें किसी औज़ार की तरह इस्तेमाल करते हैं। पाकिस्तान में शिया समुदाय के ख़िलाफ़ भी ऐसे ही संगठन इस्तेमाल हो रहे हैं। अगर शिया समुदाय पर ज़ुल्म हो रहा है तो सभी मुसलमानों को आगे आकर उसका विरोध करना चाहिए। जान से मारना तो दूर, क़ुरआन तो ज़ुल्म और ज़ालिम के लिए कड़ी सज़ा की बात करता है। याद रहे क़ुरआन की सूरह अल-माइदह की आयत- ३२-३४ में साफ़ ईश्वरीय फ़रमान है कि "जो शख़्स किसी इंसान को क़त्ल करे तो गोया उसने सारे इंसानों को क़त्ल किया और जिसने एक शख़्स को बचाया तो गोया उसने सारे इंसानों को बचा लिया।" जब क़ुरआन ने ये साफ़ कर दिया कि किसी बेक़सूर को मारना पूरी इंसानियत को मारने के सामान है, तो मतलब साफ़ है कि, जो ये दहशतगर्द कर रहे हैं वो ग़ैरइस्लामी और इंसानियत से गिरी हुई हरकत है। इसकी निंदा करना हर सच्चे मुसलमान का दीनी फ़रीज़ा है।


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में विजिटिंग फैकेल्टी हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)