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संशोधन, सहूलियत और समर्थन / सैयद सलमान
Friday, November 20, 2020 10:41:07 AM - By सैयद सलमान 

इस्लामी नुक़्त-ए-नज़र से देखा जाए तो शराबनोशी और लिव इन सरासर हराम हैं
साभार- दोपहर का सामना 20 11 2020

मुस्लिम समाज के लिए पिछले दिनों एक ख़बर अचंभे भरी रही जब गल्फ़ देशों में कुछ हद तक अपनी उदार छवि रखने वाले यूनाइटेड अरब अमीरात (यूएई) ने अपनी क़ायमशुदा छवि को और बड़ा करते हुए अपने नियमों में कुछ अहम बदलाव किये। इन नए नियमों में शराब पीने और शादी से पहले युगल को एक साथ रहने की आज़ादी दी गई है। मुस्लिम देश होने के नाते इससे पहले यूनाइटेड अरब अमीरात में इन दोनों पर बैन था। अगर कोई युगल शादी से पहले एक साथ कमरे में मिल जाता तो उसे कोड़ों से पीटा जाता था। यूएई में पब्लिक में शराब का सेवन भी वर्जित था। लेकिन अब नियमों के बदलाव के बाद लोग शादी से पहले एक साथ रह भी सकते हैं और शराब भी पी सकते हैं। अब २१ साल या उससे ऊपर के किसी शख़्स पर शराब पीने, बेचने या रखने पर जुर्माना नहीं लगेगा। इससे पहले लोगों को शराब ख़रीदने, उसके परिवहन या अपने घरों में रखने के लिए लाइसेंस लेना पड़ता था।

नए नियमों के तहत जिन मुसलमानों के शराब पीने पर प्रतिबंध था, उन्हें भी शराब पीने की छूट और बग़ैर शादी के युगल को साथ में रहने की आज़ादी दी गई है। 'लिव इन' यूएई में लंबे समय से एक गंभीर अपराध की श्रेणी में रहा है। हालांकि दुबई जैसे शहर में विदेशियों के लिव इन में रहने को लेकर प्रशासन थोड़ी ढिलाई बरतता था, मगर सज़ा का ख़तरा तब भी रहता था। लेकिन अब ग़ैर-शरई लिव इन रिलेशन क़ानूनन जुर्म नहीं रहा। किसी मुस्लिम देश, जिस पर अरब संस्कृति की पूरी छाया हो, उस देश में शराबनोशी और लिव इन को लीगल कर देना बड़ी बात है। देश और विश्व के उदारवादी तबक़े ने तो इस फ़ैसले का स्वागत किया है लेकिन एक गुट के मुताबिक़ इस फ़ैसले से देश की संस्कृति को नुक़सान पहुंचेगा। यहां यह जानना रोचक होगा कि यह घोषणा यूएई की इज़राइल के साथ रिश्तों को सामान्य करने के लिए हुए क़रार के बाद की गई है।

दरअसल यूएई अब इस्लामी कट्टरपंथ के शिकंजे से अपने आप को अलग करने की कोशिश में लगा है। यूएई ने इस दिशा में आगे बढ़ते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ में बहुत सारे बदलाव किये हैं। शराबनोशी और लिव इन के अलावा ये बदलाव ऑनर किलिंग, तलाक़ और उत्तराधिकार से संबंधित मामलों में किये गए हैं। यूएई ने इन बदलाव के ज़रिये निजी आज़ादी का दायरा बढ़ाने के संकेत दिया है। यूएई के नये शाही फ़रमान के मुताबिक़ इन सुधारों का मक़सद देश की आर्थिक और सामाजिक प्रतिष्ठा को प्रोत्साहित करना है और दुनिया को यह संदेश देना है कि वैश्विक परिदृश्य में शामिल होने के लिए यूएई अपनी सोच बदल रहा है। इन बदलावों को इज़राइल-यूएई समझौते से भी जोड़कर देखा जा रहा है। इस संधि से देश में इज़राइली सैलानी और निवेश आने की उम्मीद है। वैसे इस बदलाव को यूएई के महत्वाकांक्षी ‘एक्सपो २०२०’ से भी जोड़ा जा रहा है। अक्टूबर २०२१ से मार्च २०२० तक चलने वाला ये एक्सपो एक मेगा इवेंट है जो दुबई में आयोजित किया जाएगा। यूएई में व्यक्तिगत आज़ादी का दायरा बढ़ाना यह दिखाता है कि वह पश्चिमी देशों के सैलानियों और कारोबारियों को आकर्षित करना चाहता है। दुबई की बुर्ज़ ख़लीफ़ा इमारत लोगों के आकर्षण का केंद्र है ही, इसलिए उसी तर्ज़ पर वह अपने आप को अन्य गगनचुंबी इमारतों और मनोहारी स्थल के तौर पर पेश करना चाहता है।

इस्लाम के मानने वालों और अनेक बुद्धिजीवियों का मानना है कि इस्लाम ‘दीन-ए-फ़ितरत’ यानि प्राकृतिक धर्म है। अगर बात इस्लामिक क़ानून की हो तो इस्लाम शराब पीने और इसे ख़रीदने और बेचने से मना करता है। एक हदीस के मुताबिक़ मक्का विजय के पश्चात पैग़ंबर मोहम्मद साहब ने शराब, मृत मांस, और सुअर की बिक्री पर रोक लगा दी थी। पवित्र धर्मग्रंथ क़ुरआन में दर्ज है, "ऐ ईमानदारो, ये शराब जुआ और पांसे तो शैतानी काम हैं अतः तुम इनसे अलग रहो, ताकि तुम कामयाब बनो"- (अल-क़ुरआन ०५:९०) इस्लाम सहित अनेक धर्मावलंबियों का मत है कि व्यभिचार, बलात्कार, वासनावृत्ति की घटनाएं शराबियों में अधिक होती हैं। ऐसी धारणा है कि अधिकांश बलात्कारियों ने अनेक कुकृत्य नशे की अवस्था में किये। छेड़छाड़ के मामलों का कारण भी अधिकतर नशा ही है। इस्लाम के अनुसार शराब का नशा मनुष्य को उसकी व्यक्तिगत मानवीय प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान से वंचित कर उसे पाश्विक स्तर तक ले जाता है। अनेक चिकित्सा शास्त्री मानते हैं कि मदिरा सेवन कोई आदत या नशा नहीं बल्कि एक बीमारी है। शायद इसीलिए इस्लाम में शराब पीने की घोर मनाही है और इसे महापाप ठहराया गया है।

इस्लाम प्रकृति प्रदत्त वह धर्म है जो न केवल समस्त मानव में प्रेम की भावना को स्वीकार करता है बल्कि इस भावना की संतुष्टि के लिए रिश्तों में प्रेम, मित्रता और संबंधों की शुद्ध और पारदर्शी नींव प्रदान करता है। इस्लामी समाज की नींव पारिवारिक प्रणाली की है। और इतना तो तय है कि परिवार प्रणाली की स्थापना, इसकी स्थिरता और निरंतरता आपसी प्रेम और स्नेह के बिना संभव नहीं है। इसीलिए इस्लाम उन सभी के साथ प्यार और सम्मान का रिश्ता बनाए रखने की अनुमति और आज्ञा देता है। रिश्तों की पवित्रता के लिए जिनके साथ रक्त संबंध रिश्तेदारी हो, दूध शरीकी भाई-बहन हों, या शरई तौर पर तय किये गए अन्य वह सभी रिश्ते जिनसे शादी करना हराम है, इस्लाम में उन रिश्तों को 'महरम' कहा जाता है। इस्लाम बाक़ी सब रिश्तों को एक-दूसरे के लिए 'ना-महरम' या 'ग़ैर-महरम' घोषित करता है। लिव इन रिश्ते इसी श्रेणी में आते हैं। इस्लामी धर्मग्रंथ में साफ़ लिखा है, "और व्यभिचार के निकट न जाओ। वह एक अश्लील कर्म और बुरा मार्ग है।"- (अल-क़ुरआन १७:३२) स्पष्ट है कि इस्लाम ने ग़ैर-महरम के साथ संबंध और प्यार का आधार विवाह को बनाया है। विवाह के बिना एक ग़ैर-महरम के साथ अंतरंग संबंधों को अगर हराम क़रार दिया गया है तो गैर-महरम को एक साथ रहने की छूट कैसी दी जाती है। लेकिन इस पूरी धारणा को यूएई ने बदल दिया है।

इस्लामी नुक़्त-ए-नज़र से देखा जाए तो शराबनोशी और लिव इन सरासर हराम हैं। अन्य देश के मुसलमानों में अब यह भ्रम फैल सकता है कि जब अरब संस्कृति से प्रभावित एक देश इसे हराम नहीं मानता तो इसे हराम मानने का स्पष्ट आधार क्या हो? भले ही यह निर्णय साफ़-साफ़ आर्थिक कारणों से लिया गया हो लेकिन तब भी एक जिज्ञासा है कि दुबई को इतना भारी बदलाव क्या केवल आर्थिक कारणों से करना पड़ा? १४०० वर्षों से अधिक समय से चली आ रही धारणा को बदलने के पीछे क्या बदलाव की वह बयार नहीं है जो अंतरराष्ट्रीय समूह किसी मुस्लिम देश के ज़रिये मुसलमानों में फैलाना चाहता है? यूरोपीय देशों सहित पश्चिमी देशों के अनेक मुस्लिम परिवारों में शराब पी जाती है इस से शायद ही कोई इनकार करे। पाकिस्तान जैसे स्वघोषित इस्लामी मुल्क भी इस से अछूते नहीं हैं। ग़ैर-महरम से संबंधों का भी चलन बढ़ा है। लिव इन जैसी वबा ने भी मुसलमानों को अपने क़ब्ज़े में ले रखा है। क्या दुबई द्वारा किया जा रहा संशोधन मुसलमानों के लिए एक ऐसी नई राह नहीं खोल रहा जो इस्लाम के नज़रिये से ग़लत हो? लेकिन भारत की धरती पर विदेशों की किसी भी घटना पर आसमान सर पर उठा लेने वाले मुसलमान दुबई के निर्णय पर पूरी तरह चुप हैं। इक्का-दुक्का बयानों को छोड़ दें तो कोई बड़ी प्रतिक्रिया अब तक मुसलमानों की तरफ़ से नहीं आई है। क्या यह आम मुसलमानों के बदलने का संकेत है? क्या इस चुप्पी को दुबई के प्रति आम मुसलमानों की सहमति नहीं मान ली जाएगी? आख़िर दुबई बड़ी संख्या में मुसलमानों की रोज़ी-रोटी का बड़ा केंद्र रहा है। सवाल तो कई हैं, लेकिन जवाब उन्हीं मुसलमानों को देना चाहिए जो सेलेक्टिव भूमिका रखते हैं और सहूलियत के हिसाब से इस्लामी मुल्कों का समर्थन भी करते हैं और विरोध भी। दुबई द्वारा संशोधित शराब नोशी और लिव इन का यह भूत मुसलमानों के गले की फांस बन गया है, इस बात से शायद ही कोई मुसलमान इनकार करे।

(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में विजिटिंग फैकेल्टी हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)