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सामाजिक स्तर पर चरित्र निर्माण ज़रूरी ! / सैयद सलमान
Friday, October 16, 2020 9:41:25 AM - By सैयद सलमान

समय की मांग है कि बलात्कार को अपराध की दुनिया में शीर्ष स्थान पर रखा जाए
साभार- दोपहर का सामना 16 10 2020

पिछले कुछ वर्षों में समाज में जिस तरह बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि हुई है उस से पूरा देश चिंतित है। राजनैतिक बयानबाजियों से इतर सामाजिक स्तर पर बलात्कारियों को सज़ा देने की हमेशा से ही मांग होती रही है। पिछले दिनों हाथरस, बलरामपुर सहित देश के विभिन्न हिस्सों से ऐसी ख़बरें अख़बारों की सुर्ख़ियां बनीं, चैनल्स की स्क्रीन इन्हीं घटनाओं की गवाह बनीं और सोशल मीडिया तो ख़ैर जैसे बहस का अखाड़ा बन गया। चिंताजनक बात यह रही कि कठुआ, उन्नाव, हाथरस और अन्य जगहों की बलात्कार की घटनाओं की पुष्टि के बावजूद बलात्कार करने वालों का साथ देने वाली ख़बरें भी आईं। हालांकि उन्हें जागरूक समाज की आवाज़ के सामने दबना पड़ा। फिर भी ऐसी स्थिति चिंताजनक है। अमूमन बलात्कार की घटना के बाद यह आवाज़ उठती रही है कि बलात्कारियों को फांसी दी जानी चाहिए। कई ऐसी आवाज़ें भी उठती हैं कि इस्लामी मुल्कों की तर्ज़ पर बलात्कारियों को सज़ा मिलनी चाहिए। ऐसी आवाज़ें उठाने वाले वह लोग भी होते हैं जिनकी पहचान अक्सर इस्लाम या मुस्लिम विरोधी की भी होती है। यह एक आश्चर्यजनक बात है कि कम से कम बलात्कार के मामले में इस्लाम की इस सज़ा पर बड़ी संख्या में सहमति नज़र आती है।

समय की मांग है कि बलात्कार को अपराध की दुनिया में शीर्ष स्थान पर रखा जाए। सरकारी महकमों से जारी वार्षिक आंकड़ों और मीडिया द्वारा मिलने वाली सूचनाओं से सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जब पुलिस विभाग में दर्ज बलात्कार की घटनाओं की संख्या इतनी अधिक है तो फिर उनकी असल संख्या कितनी ज़्यादा होगी। छेड़-छाड़, शारीरिक छेड़ख़ानी, बलात्कार, अपहरण और बलात्कार के बाद हत्या, नज़दीकी रिश्तों में यौन उत्पीड़न, छः महीने की बच्ची से लेकर अस्सी साल की वृद्धा तक के साथ दुष्कर्म, ब्लू फ़िल्में बनाकर अवैध धंधों और ब्लैकमेलिंग का कारोबार, बालिकाओं और युवतियों को देह-व्यापार के धंधे में फंसाने, विधवा आश्रमों के शरण में रहती महिलाओं के नियोजित यौन-व्यापार के रैकेट्स तथा सामान्य समाज में ‘स-सहमति व्यभिचार’ जैसी घटनाएँ हमारे समाज के नैतिक अस्तित्व और चारित्रिक ताने-बाने के लिए धीमे ज़हर का काम कर रही हैं।

हालांकि अगर सही इस्लाम का गहराई से अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होगा कि बलात्कार को लेकर इस्लाम ने बहुत ही सख़्त नियम तय किये हैं। यौन-अपराध की समस्या को इस्लाम ने गंभीरता से लिया है। इस्लाम ने इस समस्या के हल की ख़ातिर आध्यात्मिक और नैतिक स्तर पर, सामाजिक स्तर पर और क़ानूनी स्तर पर भी गहराई से काम किया है। इस्लाम की विचारधारा यह है कि समाज के चरित्रवान होने के लिए व्यक्ति का चरित्रवान होना पहली शर्त है। इस आधार पर अनेक नियम तय किये गए हैं जिस से इस्लाम को मानने वाला चरित्रवान बन सके। इस्लाम की एक और विशेषता यह है कि वह क़ानून का डंडा चलाने का काम बिल्कुल आख़िर में करता है। इस्लाम क़ानूनी सक्रियता से पहले ज़्यादातर काम अपराध हो जाने से बहुत पहले शुरू कर देता है। इस्लाम आध्यात्मिक और सामाजिक स्तरों पर चरित्रनिर्माण पर ज़ोर देता है। अगर सचमुच उन शिक्षाओं का पालन किया जाए तो अपराध की घटनाएं आधी से अधिक ख़त्म हो सकती हैं। अगर ऐसा नहीं हो पाता है तभी बलात्कार या यौन उत्पीड़न की घटनाओं के लिए इस्लाम अत्यंत सख़्त क़ानून और कठोरतम दंड का प्रावधान करता है। लेकिन समस्या यही है कि इन शिक्षाओं को आम मुसलमानों तक या समाज के अन्य हिस्सों तक पहुंचाने पर ध्यान नहीं दिया जाता। सनातन धर्म भी इसी प्रकार के चारित्रिक निर्माण पर ज़ोर देता है, लेकिन वहां भी यही कमी पाई जाती है।

यौन-अपराध न हों इसके लिए इस्लाम की शिक्षाओं और आदेशों को न मानने के बाद यदि कुछ लोग ऐसे यौन-अपराध कर बैठें तो इस्लाम की दृष्टि में ऐसे लोग इस्लाम की मान्यताओं की अवहेलना करने वाले मान लिए जाते हैं। इस्लाम फिर इस निर्णय पर पहुंचता है कि ऐसे लोगों की प्रकृति और चरित्र में इतना विकार आ चुका है कि न वे ख़ुदा से डरते हैं, न उन्हें जहन्नुम की सज़ा की चिंता है, न समाज में गंदगी फैलाने से ऐसे लोग रुकेंगे। ऐसे लोग अपनी और परिवार की बदनामी की फ़िक्र भी नहीं करते। ऐसे लोगों को मानवीय मूल्यों के महत्व और गौरव-गरिमा की कोई चिंता नहीं होती है। इस्लाम की नज़र में ऐसे लोग समाज के शरीर का नासूर और कैंसर होते हैं। ऐसे में इस्लाम इस प्रकार के नासूर का ऑपरेशन कर या कैंसरयुक्त अंग को काटकर समाज के शरीर से अलग कर देने की वकालत करता है। ऐसा करके वह बाक़ी शरीर यानि बक़िया समाज को इस गुनाह से बचा लेने का प्रावधान करते हुए अपनी क़ानून व्यवस्था को क्रियान्वित करने पर ज़ोर देता है।

सबसे पहले इस्लाम दोषी को पत्थर मार-मारकर हलाक कर देने अर्थात मार डालने की सज़ा देने को प्राथमिकता देता है। कुछ इस्लामी देशों में सर कलम कर दिया जाता है। अपराध की गंभीरता के हिसाब से कुछ मामलों में सौ कोड़े मारने की सज़ा भी निर्धारित की गई है। ख़ास बात यह है कि जांच के बाद दोषी साबित होने वाले के प्रति फिर कोई नरमी नहीं बरती जाती, न ही इन सज़ाओं में कुछ कम-ज़्यादा करने की गुंजाइश होती है। दया-याचना की सभी संभावना ख़त्म हो जाती है। न्यायाधीश या क़ाज़ी को तो छोड़िये राष्ट्राध्यक्ष को भी दोषी की सज़ा में कमी करने या माफ़ करने का तनिक भी अधिकार नहीं होता क्योंकि यह ‘शरीयत का क़ानून’ है और इस्लाम की मान्यता है कि शरीयत अल्लाह के द्वारा बनाया गया क़ानून है। शरीयत की व्याख्या क़ुरआन शरीफ़ की आयतों और अनेक हदीसों में पैग़ंबर मोहम्मद साहब द्वारा की गई है। इस्लाम इस मामले में कितना सख़्त है यह इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि, यह सारी सजाएं खुलेआम जनसामान्य के सामने देने का प्रावधान है, ताकि लोग दुष्कर्म करने से डरें। लोगों में इस्लामी क़ानून का डर बना रहे और यह ख़ौफ़ दुराचारी लोगों की कामवासना की अनैतिक भावना पर असरकारक साबित हो।

सामान्यतः अनेक देशों में आपसी सहमति से किये व्यभिचार को अपराध नहीं माना गया है। लेकिन इस्लाम में इसे भी बराबर का अपराध माना गया है। सामान्य क़ानून ससहमति व्यभिचार को व्यक्तिगत मानव अधिकार मानता है, जबकि इस्लामी क़ानून उसे भी सामाजिक अपराध की श्रेणी में रखकर उसका सख़्त विरोध करता है। इस्लाम का तर्क है कि जो व्यक्ति सहमति को आधार बनाकर व्यभिचार करे वह चरित्राहीनता की पस्ती में गिरता चला जाता है। उसका अगला क़दम बलात्कार की ओर बढ़ जाने की संभावना बढ़ जाती है। ऐसे में इस्लामी क़ानून के हिसाब से पहले क़दम पर ही कड़ी सज़ा दे दी जाती है। आपसी सहमति के व्याभिचार पर भी सख़्त सज़ा दी जाती है। सौ कोड़े की सज़ा अधिकतर ऐसे ही मामलों में देने का प्रावधान है।

सामान्यतः जब बलात्कारियों को सरे आम फांसी की मांग की जाती है तो बलात्कार के कारकों को पैदा करने, उसे बढ़ावा देने और इसके अवसरों की उपज बढ़ाने वाली व्यवस्था को दरकिनार कर दिया जाता है। इन परिस्थितियों में मृत्यु-दंड के औचित्य पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लग जाता है। पहले इसका निवारण आवश्यक है। इस्लाम अपनी व्यवस्था पर यह प्रश्नचिन्ह लगने ही नहीं देता, इसलिए उसका काम आसान हो जाता है। अभी तक हत्या सहित अनेक मामलों में ढील देने की वकालत अनेक मुस्लिम विद्वान कुछ तर्कों के आधार पर करते रहे हैं, लेकिन शायद ही किसी इस्लामी मुल्क से बलात्कारियों की सज़ा कम या माफ़ करने की मांग उठी हो। मुस्लिम विद्वानों को यह भी लगता है कि उनकी ऐसी मांग को कहीं महिला विरोधी, बलात्कार समर्थक या फिर शरीयत विरोधी न मान लिया जाए। यह डर एक तरह से अच्छा है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या इस्लामी क़ानून की तर्ज़ पर हमारे देश में संवैधानिक क़ानून बनाने की गुंजाइश है भी या केवल फांसी की सज़ा की मांग करना मात्र समय-समय पर छोड़ा जा रहा बस एक शगूफ़ा है जिसकी वास्तविकता में कोई अहमियत नहीं है।