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मस्जिद के साथ मानवता भी साकार हो / सैयद सलमान
Friday, August 14, 2020 10:23:40 AM - By सैयद सलमान

अयोध्या मामले में फ़ैसला ख़िलाफ़ आने के बावजूद मुस्लिम समाज के पास आबंटित ज़मीन को देश के लिए एक आदर्श बनाकर पेश करने का सुनहरा मौक़ा है
साभार- दोपहर का सामना 14 08 2020

इन दिनों अयोध्या एक बार फिर चर्चा में है। हो भी क्यों न जब लगभग पांच सदी से चला आ रहा बाबरी मस्जिद-रामजन्म भूमि विवाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुलझाया जा चुका है और वहां राम मंदिर बनने की शुरुआत हो चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने ९ नवंबर २०१९ को अयोध्या मामले में फ़ैसला सुनाते हुए संबंधित स्थल पर राम मंदिर का निर्माण कराने और सरकार को मामले के मुख्य मुस्लिम पक्षकार सुन्नी सेंट्रल वक़्फ़ बोर्ड को अयोध्या में किसी प्रमुख स्थान पर मस्जिद निर्माण के लिए पांच एकड़ जमीन देने का आदेश दिया था। उत्तर प्रदेश सरकार ने गत ५ फरवरी को राममंदिर से दूर अयोध्या जिले के धन्नीपुर, सोहावल क्षेत्र में सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को पांच एकड़ जमीन आबंटित करने के फ़ैसले पर मुहर लगा दी थी। यह फैसला राम मंदिर के पक्ष में था, जिसके बाद भव्य राम मंदिर बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई। सबसे पहले कुल १५ सदस्यों को मिलाकर राम जन्मभूमि तीर्थ ट्रस्ट बनाया गया, जिनमें ९ स्थायी और ६ नामित सदस्य हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ५ अगस्त को श्रीराम जन्मभूमि में भव्य राम मंदिर के निर्माण के लिए भूमि पूजन करने के साथ ही आधार शिला भी रख दी। इसी के साथ मुस्लिम पक्षकारों में भी हलचल तेज़ हुई और उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने उसी दिन अयोध्या में मस्जिद निर्माण के लिए 'इंडो-इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन ट्रस्ट' बनाए जाने और उसके ९ सदस्यों के नामों का ऐलान भी कर दिया। इस ट्रस्ट में भी १५ सदस्य होंगे। बाकी बचे ६ सदस्यों की घोषणा बाद में की जाएगी।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि राम मंदिर बनाए जाने को लेकर जितना उत्साह नज़र आया उसके मुक़ाबले आबंटित भूमि पर मस्जिद बनाए जाने को लेकर बड़ी उहापोह की स्थिति रही। यह बात शायद मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से सही हो कि मुस्लिम पक्षकार ऐसे फ़ैसले की उम्मीद नहीं कर रहे थे इसलिए फ़ैसला ख़िलाफ़ आते ही अलग-अलग सुर सुनाई दिए। हालांकि सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला मानने की सभी पहले से रज़ामंदी जताते आ रहे थे। क़ानूनन सभी दरवाज़े बंद हो जाने के बाद सरकार द्वारा आबंटित भूमि को स्वीकार करने के अलावा उनके पास कोई मार्ग नहीं बचा था। भूमि स्वीकार करने के बाद यह घोषणा भी की गई थी इस पांच एकड़ भूमि पर अस्पताल, विद्यालय, इस्लामिक कल्चरल संस्थान और लाइब्रेरी बनाने के साथ ही सामाजिक गतिविधियां बढ़ाने वाले कार्यक्रम संचालित होंगे। लेकिन नवंबर से अगस्त के बीच मुस्लिम समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलाए जाने वाले ट्रस्ट या उसमें शामिल किये जाने वाले नाम तक तय नहीं हो पाए थे। मुस्लिम समाज के चंद गुटों ने शुरू में बदले की ज़मीन लेने से किसी तरह का तअल्लुक़ नहीं होने की बात कही थी। मुस्लिम पक्षकारों की तरफ़ से दाख़िल रिव्यू पेटिशन भी ख़ारिज हो गई थी। फिर मुस्लिम पक्षकारों ने आश्चर्यजनक ख़ामोशी ओढ़ ली। न तो उन्होंने मस्जिद बनाने को लेकर कोई हलचल की न ही सरकार ने आगे बढ़कर उनसे कोई संपर्क किया। अब जब राम मंदिर निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, तब वक़्फ़ बोर्ड को अचानक नींद से जागना ही पड़ा। लेकिन किसी भी मुस्लिम रहनुमा या संगठन ने उनसे यह सवाल नहीं किया कि इतनी लंबी ख़ामोशी का क्या अर्थ निकाला जाए। दो ही सम्मानजनक तरीक़े हो सकते थे। एक तो यह कि, सुप्रीम कोर्ट की सारी क़ानूनी प्रक्रियाओं से गुज़र कर जब ज़मीन स्वीकार की थी तो मस्जिद बनाने की प्रक्रिया या उस से जुड़े तकनीकी और प्रशासनिक कार्य शुरू हो जाने चाहिए थे। या फिर आबंटित ज़मीन अस्वीकार कर यह संदेश देना चाहिए था कि अगर देश का क़ानून फ़ैसला कर चुका है कि जमीन पर राममंदिर बनेगा तो उसके ऐवज में पर्यायी ज़मीन लेने का कोई तुक नहीं बनता। क्योंकि क़ानूनी विवाद तो आख़िर रामजन्मभूमि को लेकर था। लेकिन मुस्लिम समाज के रहनुमाओं ने उहापोह बरक़रार रखकर अपरिपक्वता का परिचय दिया।

मुस्लिम पक्षकारों के अंदरख़ानों की मानें तो यह तय हो चुका था कि जिस जगह मुसलमानों को ज़मीन मिली है वहां पर मस्जिद तो बननी ही है। साथ ही वहां पर एक हॉस्पिटल, इंडो-इस्लामिक रिसर्च सेंटर, लाइब्रेरी और म्यूज़ियम बनाए जाने की भी योजना है। ट्रस्ट का ख़ाका भी बन गया था। कुछ ज़िम्मेदारों ने कोरोना काल के कारण देर होने की बात भी कही थी, लेकिन वह जूनून नदारद था जो क़ानूनी लड़ाई लड़ने के दौरान दिखाई पड़ता था। शायद तब चर्चा और प्रसिद्धि मिलना भी उत्साह बनाए रखने का एक कारण रहा हो। लेकिन राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद जमीन विवाद के मुस्लिम पक्षकारों में देरी का सबसे मज़बूत बहाना था जमीन का अयोध्या शहर से दूर होना और इसी बात को लेकर नाराज़गी जताई जाती रही। हालांकि मुस्लिम पक्षकारों को यह समझना चाहिए था कि इस ढुलमुल रवैये और बहानेबाज़ी से पूरे मुस्लिम समाज की फ़ज़ीहत हो रही है। जमीन को स्वीकार करना था या नहीं, तीसरा कोई पर्याय रह ही नहीं गया था तो मामले को लंबा खींचना समझ से परे की बात ही कही जाएगी।

इस बात में कोई संदेह नहीं कि मुसलमान इस देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग है, मगर तालीम के मामले में सबसे पिछड़ा हुआ है। देश में बाक़ी समुदाय उससे बहुत आगे निकल गए हैं। शिक्षा के अभाव में ही मुस्लिम समाज में मध्यम वर्ग का विकास नहीं हो पाया, जबकि किसी देश या समाज का नेतृत्व उसका शिक्षित मध्यवर्ग ही संभालता है। लेकिन मुस्लिम समाज अब भी दोराहे पर खड़ा है। वह परंपरागत मदरसा आधारित शिक्षा को छोड़ना नहीं चाहता। दूसरी ओर राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ आगे भी बढ़ना चाहता है। अब जब हलचल बढ़ी है तो लोगों की आस भी बढ़ गई है। पांच एकड़ ज़मीन कम नहीं होती। पहले किए गए ऐलान के मुताबिक आबंटित भूमि पर मस्जिद और अन्य लोकहितकारी सामाजिक संस्थान वग़ैरह बनाने की दिशा में अब तेज़ी से काम शुरू करने की ज़रूरत है। यहां यह जानना भी ज़रूरी है कि मस्जिद के लिए आबंटित किए गए धन्नीपुर इलाके में दो मदरसे हैं, दो इंटर कॉलेज हैं, प्राइमरी स्कूल हैं, साथ ही एक दसवीं तक का स्कूल है जबकि अस्पताल २० किलोमीटर दूर है। इसके अलावा इंटर की पढ़ाई के बाद बच्चों के पढ़ने के लिए फ़ैज़ाबाद या फिर कहीं और जाना होता है। टेक्निकल पढ़ाई के लिए भी कोई कॉलेज नहीं है, ऐसे में अगर वहां बड़ा मेडिकल कॉलेज या कोई टेक्निकल कोर्स कराने वाला कॉलेज खुले तो सभी समाज के लिए उपयोगी होगा।

इस बीच जब राममंदिर का शिलान्यास हो रहा था उसी दिन सोशल मीडिया पर वायरल हुए एक मैसेज में दावा किया जा रहा था कि मस्जिद के लिए आबंटित भूमि पर 'बाबरी हॉस्पिटल' बनाया जाएगा जिसका ब्लू प्रिंट भी जारी किया गया। बाद में यह दावा फ़र्ज़ी निकला। मुस्लिम समाज की इस से भी काफ़ी किरकिरी हुई। लेकिन इसका उजला पक्ष यह भी हो सकता है कि इस अफ़वाह को ही सत्य में बदला जाए। चूंकि जहां पहले से ही मस्जिदें स्थापित हैं वहां अन्य किसी चीज़ का बन पाना अब अनेक फ़तवेबाजों के कारण मुमकिन नहीं है, लेकिन नए सिरे से बनने वाली वाली मस्जिद और उसके आसपास तो इन सुविधाओं को देने की पहल आसानी से की जा सकती है। फ़ैसला ख़िलाफ़ आने के बावजूद मुस्लिम समाज के पास आबंटित ज़मीन को देश के लिए एक आदर्श बनाकर पेश करने का सुनहरा मौक़ा है। चूंकि जगह मस्जिद के लिए दी गई है, इसलिए ज़रूरत भर जगह पर भव्य मस्जिद का निर्माण कर अपनी साख़ बचाई जा सकती है और पुराने विवाद पर हमेशा के लिए पर्दा गिराया जा सकता है। बक़िया ज़मीन पर मस्जिद और उसके निगरां ट्रस्ट की देखरेख में ही अस्पताल, आधुनिक उच्च शैक्षणिक केंद्र, कम्युनिटी सेंटर, म्यूज़ियम, लाइब्रेरी जैसे अन्य संस्थान बनाकर आने वाली पीढ़ी का भविष्य बनाने और संवारने का काम भी किया जा जा सकता है। इस से मुस्लिम समाज को कट्टरपंथी छवि से छुटकारा भी मिलेगा और उसकी प्रगतिशील छवि भी बनेगी। इस से सांप्रदायिक कटुता निस्संदेह कम होगी। मस्जिद बने इस से किसी को इनकार नहीं है, लेकिन साथ ही 'सदक़ा-ए-ज़ारिया' यानि मरने के बाद भी जारी रहने वाली नेकी का कार्य हो जाए जो मानवीय हित में हो, तो मुस्लिम समाज की प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी और मानवसेवा की सच्ची इस्लामी मूल भावना को भी साकार किया जा सकेगा। देश मुस्लिम समाज की तरफ आशा भरी नज़रों से देख रहा है, उम्मीद है उसे निराश नहीं होना पड़ेगा।