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ईमानदार अनुयायी बनना ज़रूरी ! / सैयद सलमान
Friday, August 7, 2020 11:38:50 AM - By सैयद सलमान

मस्जिदें मुसलमानों का वह महत्वपूर्ण केंद्र रही हैं जिसका केवल मज़हबी ही नहीं बल्कि सामाजिक और शैक्षणिक उद्देश्य भी रहा है
साभार- दोपहर का सामना 07 08 2020

कोरोना काल में तमाम इबादतगाहों के साथ मस्जिदें भी आम नमाज़ियों के लिए बंद हैं। सरकारी आदेश के मुताबिक मास्क पहनकर सोशल डिस्टेंसिंग और सेनिटाइज़िंग इत्यादि का पूरी तरह पालन करते हुए चार से पांच लोग ही मस्जिद में नमाज़ अदा कर रहे हैं। पेश इमाम के साथ अज़ान देने के लिए नियुक्त बांगी और मस्जिद-मदरसों की देखभाल के लिए नियुक्त अन्य ज़िम्मेदारों के अलावा मैनेजमेंट से जुड़ा कोई पदाधिकारी अक्सर इनमें शामिल होता है। मुसलमानों को इस से अब ऐतराज़ भी नहीं रहा क्योंकि उसने पूरे विश्व की मस्जिदों में लगी पाबंदी को देख लिया है। यहाँ तक कि मस्जिद-ए-हरम को भी आम नमाज़ियों के लिए बंद कर दिया गया था। हज के दौरान भी लाखों की जगह कुछ हज़ार की अनुमति दी गई वह भी इसलिए कि कोरोना के प्रकोप में मामूली कमी देखी गई थी। ऐसे में आम मुसलमानों का मस्जिदों से राब्ता कम या यूँ कहें कि न के बराबर हुआ है। ख़ासकर मस्जिद के पेश इमाम के बिना नमाज़ पढ़ने की उनकी मजबूरन ही सही मगर आदत बन गई है। इस से मस्जिदों के पेश इमामों की अहमियत कुछ कम हो गई हो ऐसा नहीं है लेकिन आम मुसलमानों ने कभी उन पेश इमामों को लेकर गंभीरता से चिंतन नहीं किया है जिन्हें नायब-ए-रसूल का दर्जा दिया गया है।

मुसलमानों के व्यावहारिक जीवन में इबादत सबसे महत्वपूर्ण और निरंतर किया जाना वाला अमल है। इस लिहाज़ से मुसलमानों को नज़दीक की मस्जिद या मदरसों के पेश इमामों के साथ अपनी इबादत को लेकर संपर्क बना रहता है। यानि हर मज़हबी मुसलमान का वास्ता पेश इमाम से पड़ता है। सबसे बड़ी बात तो उन्हीं के पीछे और उनके ही मार्गदर्शन में नमाज़ अदा की जाती है। इसके अलावा, मुसलमानों ने नवजात बच्चे के कान में अज़ान देने, निकाह पढ़ाने और नमाज़-ए-जनाज़ा जैसे महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियां और प्रार्थनाएं भी इमामों को सौंप दी हैं। अक्सर इमामों और मुक़्तदियों में मतभेद भी होते हैं। नमाज़ लंबी या छोटी होने, नमाज़ का समय बदलने, मस्जिद की सफ़ाई और व्यवस्था के मामलात और नमाज़ के दौरान पैदा होने वाले अनेक मुद्दे बेवजह दोनों के दरम्यान विवाद का कारण होते हैं। बाज़ दफ़ा यह मामले तूल पकड़ लेते हैं। इसलिए, इन मामलात को निपटने के साथ मुक़्तदियों की ईमानदारी, दिव्यता और निस्वार्थ सेवा भी आवश्यक है और इमाम के सम्मान और स्थिति को जानना भी आवश्यक है।

एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जब से नमाज़ की शुरुआत हुई पैग़ंबर मोहम्मद साहब ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक कुछ नमाज़ों को छोड़कर सभी नमाज़ों की इमामत ख़ुद की। यानि तमाम नमाज़ों का उन्होंने ही नेतृत्व किया। ऐसी चंद ही घटनाएं हैं जिनमें मोहम्मद साहब मुक़्तदी बने। फिर भी, जिस तरह आप इमामत के गुणों के बारे में जानते थे, उसी तरह आपने नमाज़ियों की ज़रूरतों का भी ध्यान रखा। वह अपने अनुयायियों की ज़रूरतों और भावनाओं से भी परिचित थे। उन्होंने फ़र्ज़ नमाज़ों का भी नेतृत्व किया, जनाज़े की नमाज़ भी पढ़ाई, तरावीह और ईद की नमाज़ों की इमामत भी की और सूर्य ग्रहण-चंद्रग्रहण की भी नमाज़ भी पढ़ाई। इस तरह, उन्होंने उम्मत के इमामों का सर्वश्रेष्ठ मार्गदर्शन किया और अनुयायियों को इमामों का पूरा सम्मान करना भी सिखाया। दोनों को उनके अधिकारों और कर्तव्यों से परिचित कराते हुए उन्होंने दोनों के बीच एक बहुत ही शुद्ध और आध्यात्मिक संबंध स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त किया।

अहले इस्लाम के नज़दीक मस्जिद उस इमारत का नाम है जहां नमाज़ अदा की जाती है। अगर मस्जिद में नमाज़ शुक्रवार को भी होती हो तो उसे जामा मस्जिद कहते हैं। मस्जिद शब्द क़ुरआन में भी आया है जैसे मस्जिद-ए-हरम का कई बार ज़िक्र हुआ है। बेशुमार आयात में मस्जिद शब्द का इस्तेमाल हुआ है। दरअसल मस्जिदें मुसलमानों का रूहानी और मज़हबी केंद्र हैं और पेश इमाम इसके मुखिया। किसी ज़माने में मस्जिदों को दान और ज़कात वितरण के लिए भी इस्तेमाल किया जाता था जिसकी प्रथा अब न के बराबर है। इसके पीछे के क्या कारण रहे इस पर मुसलमानों ने कभी तवज्जह नहीं दी। मस्जिदों के पेश इमामों की कोताहियों या उनके किसी न किसी गुट, फ़िरक़े या जमात की तरफ झुकाव और निष्पक्ष न रहने के आरोपों के चलते अनेक ठिकानों के ट्रस्टी और ज़िम्मेदरान ने इस प्रथा को बंद करना उचित समझा। यही शाश्वत सत्य है ऐसा भी नहीं है क्योंकि, अगर मस्जिदों से दानदारों की ज़कात, फ़ितरा, सदक़ा सीधे इमामों के ज़रिये ज़रूरतमंदों तक पहुँचने लगा तो इंतेज़ामिया कमिटी के मठाधीशों की अहमियत का क्या होगा? यह भी एक कारण हो सकता है कि अब मस्जिदें इस नेक काम को करने से महरूम हैं। अब मस्जिदों में मुख्य रूप से नमाज़ का आयोजन किया जाता है जिसमें पांच वक़्त की नमाज़, शुक्रवार को अदा की जाने वाली जुमा की नमाज़, रमज़ान में अदा की जाने वाली तरावीह की नमाज़ के साथ-साथ ईद-उल-फित्र और ईद-उल-अज़हा की नमाज़ शामिल हैं। मस्जिदें मुसलमानों का वह महत्वपूर्ण केंद्र रही हैं जिसका केवल मज़हबी ही नहीं बल्कि सामाजिक और शैक्षणिक उद्देश्य भी रहा है। बाजमात नमाज़ अदा करने से मुसलमानों के आपस के संबंध, मेल-जोल बढ़ते हैं और मस्जिदें इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। अगर उन मस्जिदों के इमाम भी नेक, दयालु, मिलनसार, शिक्षित, परहेज़गार और सही मार्गदर्शन देने वाले हों तो सोने पर सुहागा हो जाता है।

मोहम्मद साहब के बाद ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन और उनके बाद के दौर में मस्जिदें केवल इबादतगाह न होकर युद्धों और अन्य आपातकालीन स्थितियों में केवल मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि गैर-मुस्लिमीन को शरण देने के लिए पनाहगाह का काम भी करती रही हैं। ऐसे अनेक उदहारण हदीसों में मिलते हैं। यहाँ तक कि यह निज़ाम द्वितीय विश्व युद्ध के दौर तक दिखाई देता है जब मस्जिद-ए-पेरिस यहूदियों के लिए शरण स्थली बनी थी। आज भी प्राकृतिक आपदाओं में बिला-तफ़रीक़ मज़हब-ओ-मिल्लत, मस्जिदों के दरवाज़े आम जनों के लिए खोल दिए जाते हैं। जामिया अल-अज़हर जैसी कुछ मस्जिदें तो विश्वविद्यालय का दर्जा रखती हैं। अधिकांश मस्जिदों में मदरसे स्थापित हैं जिनमें क़ुरआन और मज़हब की शिक्षा के साथ-साथ वर्तमान प्राथमिक शिक्षा भी दी जाती है। ग्रामीण इलाकों की कई मस्जिदों में सामान्य मदरसे अब भी क़ायम हैं। कुछ मस्जिदों के इस्लामी केंद्र हैं जहां दीनी और दुनियावी शिक्षा के साथ शोध केंद्र भी स्थापित हैं। मोहम्मद साहब के दौर में मस्जिद-ए-नबवी केवल नमाज़ के लिए नहीं बल्कि विदेशों से आने वाले ईसाई, यहूदी शिष्टमंडल और दूतों से मुलाक़ात का केंद्र रही है।

लेकिन क्या अब भी वैसी स्थिति रह गई है? क्या रसूल के नायब अब उस स्थान को उतना ही पवित्र रख पा रहे हैं? आधुनिक दौर में मस्जिदों की राजनीतिक भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती जिसका एक स्पष्ट उदाहरण दिल्ली की जामा मस्जिद है। मुस्लिम समाज को लेकर अनेकानेक दांव-पेंच का यह कभी केंद्र रहा है। बुख़ारी परिवार ने जामा मस्जिद का भरपूर राजनैतिक इस्तेमाल किया इसमें कोई दो राय नहीं है। सरकारें और विभिन्न राजनैतिक पार्टियां भी मस्जिदों और मस्जिदों के ज़िम्मेदारान को अपने उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करती रही हैं। शायद पेश इमामों की गिरती प्रतिष्ठा का यह सब भी एक कारण है। आज के दौर का इमाम विभिन्न मिज़ाज और शैलियों के लोगों के साथ संपर्क में होता है। किसी के लहजे में कड़वाहट है, किसी की शैली कठोर है, किसी का ज़र्फ़ आला है, कोई उच्च मूल्यों का नेक बंदा है, किसी के पास कोई शिष्टाचार नहीं है, कोई शिक्षित है, कोई अनपढ़ गंवार है, कोई ऐसा भी जाहिल है जो बेकार और ग़ैर-ज़रूरी प्रश्न पूछकर इमाम को अपमानित करना चाहता है। इन विभिन्न प्रकार के लोगों से निपटने के लिए इमामों को काफ़ी मशक़्क़त करनी होती है और यह उनकी ज़िम्मेदारी भी है। आज के दौर में मुस्लिम समाज को ढूंढ़-ढूंढ़ कर ऐसे पेश इमामों की मस्जिदों और मदरसों में नियुक्ति करनी चाहिए जो मोहम्मद साहब के बताए पवित्र उद्देश्यों की पूर्ति करता हो। उनके सम्मानजनक जीवनयापन के लिए रिहाईश का इंतज़ाम, भोजन इत्यादि की व्यवस्था और सम्मानजनक मानधन देना मुस्लिम समाज की सामूहिक ज़िम्मेदारी है। नबी के दौर जैसा अगर इमाम चाहिए तो उसके लिए ज़रूरी यह भी है कि मुक़्तदी के रूप में आम मुसलमानों में सहाबा कराम जैसा अनुयायी होने का जज़्बा हो। नायब-ए-रसूल की खोज से पहले ईमानदार अनुयायी बनना ज्यादा ज़रूरी है।