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दोराहे पर मुसलमान /सैयद सलमान
Friday, January 18, 2019 3:10:28 PM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 18 01 2019

आम चुनावों की आहट अब बिलकुल नज़दीक महसूस की जा रही है। गठबंधन, महागठबंधन, तीसरा मोर्चा, चौथा मोर्चा जैसे प्रयोग शुरू हो गए हैं। सभी राजनैतिक दल अपनी बिसात भर हर तबके का वोट साधने में जुट गए हैं। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के गठबंधन के बाद राजनीतिक घटनाक्रम और भी तेज़ी से बदला है। देश भर में उत्तर प्रदेश सबसे ज़्यादा जनसंख्या वाला राज्य है और यहां पर मुसलमान वोटों की संख्या भी अन्य राज्यों के मुक़ाबले ज्यादा है। ऐसे में मुस्लिम समाज के सामने सबसे बड़ा सवाल है कि सपा और बसपा के गठबंधन में उसका स्थान क्या है और प्रदेश का मुस्लिम वोटर किस हद तक बुआ-बबुआ के इस गठबंधन को अपनाएगा। अब तक हुए चुनावों और मुस्लिम वोटों की मानसिकता के आधार पर कहा जा सकता है कि सपा-बसपा गठबंधन होने के बाद ज़्यादातर मुस्लिम मतदाता उनके गठबंधन के साथ जा सकते हैं। माना जा रहा है कि पहले एसपी-बीएसपी के बीच बंटने वाला मुसलमान वोट अब सीधे गठबंधन को मज़बूती देगा। मुस्लिम समाज ने भाजपा विरोध और बाबरी विध्वंस के बाद कांग्रेस से नाराज़गी के चलते पहले सपा का ही दामन थामा था। उसकी दूसरी पसंद बसपा रही है। ऐसे में अपने दशकों पुराने विवाद को किनारे रखकर चुनावी वैतरणा पार करने के लिए एक साथ आने का निर्णय लेकर सपा-बसपा ने मुसलमानों को आकर्षित तो किया है। इनके अलावा कांग्रेस के साथ भी अच्छी संख्या में मुस्लिम वोटर बने रह सकते हैं। लेकिन कांग्रेस के परंपरागत वोट अब कम से कमतर हो गए हैं इसलिए उसे उत्तर भारत में बड़ी सफलता मिलती नहीं दिख रही।

सपा ने तो मुसलमानों को अपने पाले में बनाए रखने के लिए अपना रंग दिखाना भी शुरू कर दिया है। सामान्य वर्ग के गरीबों को १० प्रतिशत के आरक्षण के मामले में मुस्लिम कार्ड खेलते हुए समाजवादी पार्टी के नेता आज़म खान ने ५ प्रतिशत आरक्षण मुसलमानों को देने की मांग रख दी है। सच्चर कमीशन की रिपोर्ट का हवाला देते हुए उत्तर प्रदेश में सपा का मुस्लिम चेहरा रहे आज़म खान ने दोहराया है कि मुसलमानों की स्थिति दलितों से भी ज़्यादा खराब है। आज़म खान के मुताबिक जो आरक्षण होने जा रहा है, उसमें सबसे ज़्यादा मुसलमान फिट बैठते हैं क्योंकि ये जिन्हें दिया जा रहा है वो सामाजिक पिछड़े नहीं बल्कि आर्थिक पिछड़े हैं और मुसलमान आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक तीनों रूप से पिछड़ा है। इसी तर्क के आधार पर उन्होंने इस १० फ़ीसद में से ५ फ़ीसद आरक्षण माँगा है। पीएम बनने का ख़्वाब मन में पाले हुए मायावती ने भी मुसलमानों के लिए आर्थिक आधार पर अलग से आरक्षण की मांग कर दी है। हाल ही में केंद्र सरकार ने गरीब सवर्णों के लिए जो दस प्रतिशत आरक्षण देने का ऐलान किया है, उसमें मुसलमानों समेत सभी अल्पसंख्यकों को भी शामिल किया गया है। फिर भी आज़म और मायावती मुसलमानों के लिए अलग से आरक्षण चाहते हैं, यह जानते हुए भी कि यह एक तकनीकी मामला है। सपा-बसपा सहित सभी दल जानते हैं कि निकट भविष्य में ऐसा कुछ होने से रहा, लेकिन मांग रखकर मुसलमानों को आश्वासन का झुनझुना थमाने में हर्ज ही क्या है। आज तक मुसलमान इन्हीं लुभावने वादों की बुनियाद पर अनेक कथित सेक्युलर दलों का वोटबैंक बनकर जो रहा है।

दलितों और पिछड़ों की राजनीति में अपनी पैठ जमा चुकी सपा और बसपा ने वर्षों पुरानी अपनी तल्ख़ियों को भुलाया है तब जाकर वे एक हुए हैं। दलितों-पिछड़ों को एक छत के नीचे लाकर उत्तर प्रदेश को भाजपा मुक्त करने का अखिलेश-मायावती का मिशन है। इन दोनों को मुस्लिम वोटों को लेकर भी विश्वास है कि वह सपा-बसपा गठबंधन के ही साथ रहेगा। सवाल यह है कि क्या मुसलमान भी यही सोचता है? अब तक मुसलमानों ने झोली भर-भर कांग्रेस को वोट दिया है। बदले में उसे क्या मिला है यह जगज़ाहिर है। तुष्टिकरण के आरोपों को झेलते हुए मुसलमान इस कदर पिछड़ा है की कि उसकी हालत दलितों से बदतर हो गई है। आश्चर्य की बात यह है कि सच्चर समिति का हवाला भी अक्सर कांग्रेसी नेता भी देते रहते हैं जबकि उनके शासन के दौरान ही मुसलमानों की यह दुर्गति हुई है। इसीलिए बीच-बीच में यूपी सहित अनेक राज्यों में आई सभी गैर कांग्रेसी सरकारों ने मुसलमानों पर कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी। क्योंकि मुसलमानों का लकीर का फ़क़ीर होना उन्हें भी पता है। राजनैतिक समीक्षात्मक नज़रिए से ग़ौर करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि मुसलमानों को सिर्फ़ वोट बैंक समझा गया और उन्हें हाशिये पर रखा गया। लेकिन मुसलमान इस बात को समझने से न जाने क्यों कतराता है। या शायद उसने जानबूझकर अपनी आँखें मूँद रखी हैं। मुस्लिम रहनुमा तो ख़ैर माशाअल्लाह हैं ही, जो राजनीति तो मुसलमानों की करते हैं पर उनके उत्थान का कोई ठोस कार्यक्रम आज तक न बना पाए। कुछ एक अपवाद हो सकते हैं पर अधिकांश के बारे में यही कहा जा सकता है।

मोदी शासन में मुसलमानों के साथ ज़्यादती के आरोप ख़ूब लगे हैं। मुस्लिम समाज में ख़ौफ़ व्याप्त होने का रोना भी ख़ूब रोया गया है। मॉब लिचिंग की घटनाओं पर भी चिंता व्यक्त की जाती रही है। अलीगढ़ में कथित फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मारे गये मुस्लिम युवक की चर्चा से लेकर गोरक्षा के नाम पर मुसलमानों की हत्या को भी विपक्ष ने ख़ूब भुनाया है। लेकिन मुस्लिम समाज की प्राथमिक आवश्यकताओं, बदहाली या असुरक्षा को लेकर किसी भी नेता ने कोई ख़ास न तो आंदोलन किया न ही बुलंद आवाज़ में बात की। मज़े की बात यह है कि अखिलेश और मायावती ने भी अपने गठबंधन की घोषणा करते वक़्त मुस्लिम समाज की असली समस्याओं पर कोई ठोस बात नहीं की। वे भी उन्हीं नाज़ुक मुद्दों को लेकर बयान देते रहे जिनसे मुसलमानों को लाभ कम नुक़सान अधिक होता है। संवेदनशील मुद्दों के जाल में मुसलमानों को फांसना आसान है। यह एक कटु सत्य है जिसे ख़ुद मुसलमान ही समझ नहीं रहा।

मुस्लिम समाज फ़िलहाल गोकशी के मामलों में हुई मॉब लिंचिंग, पशु वधशालाओं को बंद कराने, मंदिर-मस्जिद विवाद और तीन तलाक़ जैसे नाज़ुक मुद्दों को लेकर परेशान है। विकास और जनहित के कार्यों में अपनी कथित अनदेखी के चलते भी यूपी का मुस्लिम समाज मोदी और योगी सरकार से ख़ासा नाराज़ है। मुस्लिम मतदाताओं का ध्रुवीकरण इस बार के लोकसभा चुनाव में अलग नज़रिये से देखा जा रहा है। मुसलमान फ़िलहाल एक ऐसे दोराहे पर खड़ा है जहाँ एक तरफ़ सपा-बसपा गठबंधन है और दूसरी तरफ़ कांग्रेस है जिसके साथ उसका वर्षों का साथ रहा है। उत्तर प्रदेश का तक़रीबन बीस फ़ीसद मुस्लिम वोट तय करेगा कि किस दल के साथ जाकर वो अपनी साख़ को बचा पाएगा। क्योंकि उत्तर प्रदेश का मुसलमान आशंकित भी है। मुसलमानों को लगने लगा है कि यदि बुआ-बबुआ का गठबंधन जीतता भी है तो उसमें भले ही बड़ा श्रेय मुस्लिम मतों का हो लेकिन असली लाभ मुसलमानों को नहीं बल्कि पिछड़ों और दलितों को ही मिलेगा। इस आशंका के अपने कारण भी हैं। मुलायम, मायावती या अखिलेश की सरकारें बनने में भले ही मुसलमानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही हो मगर नौकरियों सहित अन्य मामलों में लाभ दलितों और पिछड़ों को ही अधिक हुआ है।

अभी सपा-बसपा का केवल गठबंधन हुआ है। अभी टिकट बंटवारा बाक़ी है। देखना होगा कि क्या दोनों पार्टियां टिकट बंटवारे में मुसलमानों, ख़ासतौर पर पसमांदा मुसलमानों की नुमांइदगी का ख़्याल रखेंगी? मुल्क के सबसे बड़े सूबे से दूसरी सबसे बड़ी आबादी के हितों के लिए यह ज़रूरी भी है। मुस्लिम बहुल सीटों से मुसलमान प्रत्याशी उतारने से मुस्लिम नुमाइंदगी बढ़ सकती है लेकिन क्या यह मुमकिन हो पाएगा? इन सबके बावजूद यह प्रश्न बना ही रहेगा कि क्या मुस्लिम समाज हांके पर ही चलता रहेगा? क्या मुस्लिम समाज केवल नकारात्मक वोटिंग पैटर्न पर ही वोट करेगा। क्या कभी वह अपने विकास, अपनी मूलभूत सुविधाओं, अपनी शिक्षा और आर्थिक खुशहाली के लिए भी मतदान करेगा या बस वह गत तमाम चुनावों की तरह अमुक-शमुक पार्टी को हराने और अमुक-शमुक पार्टी का वोट बैंक बनकर ही खुश हो लेगा। सवाल गंभीर है तो जवाब भी मुसलमानों को गंभीतापूर्वक सोचकर ही तलाशना होगा। सवाल एक राज्य का नहीं पूरे देश का है। और मुसलमान इस राष्ट्र का अगर खुद को हिस्सा मानते हैं तो उन्हें राष्ट्रहित में ही निर्णय लेना होगा।