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अमन को महत्व देता है इस्लाम / सैयद सलमान
Friday, December 11, 2020 - 10:31:43 AM - By सैयद सलमान 

अमन को महत्व देता है इस्लाम / सैयद सलमान
इस्लामोफ़ोबिया नामक कोई बीमारी नहीं है और न ही हिंसा से इस्लाम का कोई वास्ता है
साभार- दोपहर का सामना 11 12 2020

मुस्लिम समाज में कुछ चीजों को लेकर हमेशा से ही चर्चा होती रही है। जैसे तलाक़, हलाला, जिहाद, मदरसा, इस्लामोफ़ोबिया वग़ैरह-वग़ैरह। कभी इस्लामी मुल्कों में सख़्ती, कभी ढीलापन, कभी उनकी उदारता, कभी यूरोपीय देशों की सख़्ती, कभी धर्मनिरपेक्ष देशों में धार्मिक मामलों में भेदभाव, कभी तुष्टीकरण के आरोप, कभी धर्म के नाम पर कट्टरवाद को बढ़ावा देने के आरोप। यह सब वह वजूहात हैं जिन्हें स्थान, काल, पात्र और हालात के हिसाब से पेश किया जाता है। कभी पूर्णतया मुसलमान दोषी होता है, कभी दोष झेलता है, कभी ज़ुल्म सहता है, कभी आईएसआईएस जैसे आतंकी के रूप में करता हुआ बताया जाता है। यानि उसके कई रूप हैं। कभी इस्लाम के नाम पर पूरी दुनिया को अमन का पैग़ाम दिया जाता है कभी इस्लाम को ही दुनिया की सभी मुसीबतों की जड़ बता दिया जाता है। यानि इस्लाम के कई रूप बताकर पेश करने का एक ज़माने से चलन रहा है। लेकिन सच यह है कि इस्लाम की ग़लत व्याख्या और इस्लाम के मानने वाले मुसलमानों की हरकतें इसकी बड़ी वजह हैं। लेकिन जब विश्वभर में इस्लाम के नाम पर हिंसा हो तो मुसलमानों को योजनाबद्ध निशाना बनाना आसान हो जाता है। शायद मुसलमानों ने इस बात को अभी तक ठीक से समझा नहीं है। समझा भी हो तो उसका तोड़ निकालने में अब तक नाकामयाब रहे हैं।

अगर दुनिया भर के करोड़ों मुसलमानों को यह लगता है कि उन्हें बड़े पैमाने पर इस्लाम के प्रति पूर्वाग्रह और ‘इस्लामोफ़ोबिया’ के नाम पर निशाना बनाया जा रहा है तो यह निश्चित ही उनके प्रति अविश्वास की वह भावना है जो अन्य समाज से उनके और अलगाव को बढ़ावा देती है। ग़ौर से अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होगा कि कट्टरपंथी मुसलमानों की वजह से इस्लाम अब केवल एक धर्म या जीवनशैली नहीं रहा, बल्कि विश्व की नज़र में वह परेशानियों का सबब और राजनैतिक इस्तेमाल की कुंजी बन गया है। धर्मयुद्धों की बात करने वाले अलक़ायदा, आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठनों ने इस्लाम का मूल गंवाकर धर्म की ग़लत परिभाषा गढ़ी लेकिन बदनामी आई इस्लाम के सर और भोगता है आम मुसलमान। क्या यह तथ्य किसी से छुपा है कि मुस्लिम देशों की आपस में ही कितनी दुश्मनी है और वे एक दूसरे को नष्ट करने में अपनी पूरी ऊर्जा झोंक देते हैं। किसी दौर में इराक़ का कुवैत पर क़ब्ज़ा क्या कहा जाएगा? ईरान-इराक़ युद्ध तो सबसे लंबा चला था। दोनों के बीच आज भी तनाव है। क्या कोई भूल सकता है जब सद्दाम के ख़िलाफ़ अमेरिका द्वारा की गई बड़ी कार्रवाई में बड़ी संख्या में इस्लामी देश शामिल हुए थे? अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान का उदहारण भी दिया जा सकता है जहां मुसलमान मुसलमानों का ही क़त्ल करते हैं। कभी शिया सुन्नी के नाम पर, कभी तब्लीग़ी, अहले हदीस और जमाते इस्लामी के नाम पर कभी क़बीलों और संस्कारों के नाम पर ख़ून की वो होलियां खेली जाती हैं कि इंसानियत शर्मसार हो जाए। दुर्भाग्य से अक्सर यह ख़ूंरेज़ी मस्जिदों में जुमा को होने वाली नमाज़ के दौरान होती है ताकि अधिक से अधिक लोग इसका शिकार हों, जिस से दहशत निर्माण करने में आसानी हो। सलामती का मज़हब हिंसा का सहारा लेने लगा है। मस्जिदों और दरगाहों तक में बमबारी होती है, मासूम बच्चों के स्कूल तक को नहीं बख़्शा जाता। क्या धर्म की अपने मन मुताबिक़ नई परिभाषा गढ़ने वाले इस्लाम के नए व्याख्याता, धर्मगुरु या सियासी रहनुमा इन घटनाओं को इस्लामी नुक़्ता-ए-नज़र से जायज़ ठहरा सकेंगे?

भारत में इस्लामोफ़ोबिया की कई क़िस्में हैं। मुसलमानों को अक्सर सरकारी तंत्र से इस्लामोफ़ोबिया के नाम पर संस्थानिक भेदभाव और नज़रअंदाज़ी झेलनी पड़ी है। इस्लामोफ़ोबिया की आड़ में मुस्लिम समाज भी बहकता है। उसे लगता है पूर्वाग्रह के चलते उन्हें सताया जा रहा है या ख़त्म करने की साज़िश हो रही है। यह शायद मुस्लिमपन और इस्लामोफ़ोबिया का विपरीत पहलू ही है जिसके चलते कश्मीरी जनता दशकों से फ़िलिस्तीन के संघर्ष की समर्थक है और वहां 'सेव ग़ाज़ा' और इस्लाम की दुहाई देने वाले नारे 'फ़िलस्तीन से रिश्ता क्या- ला इलाहा इल्लल्लाह' सहज दिखाई पड़ जाते हैं। यही वह बहुकोणीय, बहुराज्यीय, बहुराष्ट्रीय एकजुटता है जिसके चलते जेरूसलम में अल-अक़्सा मस्जिद को खंडित करने पर मुस्लिम समाज सड़कों पर उतर आया था। इसीलिए मुस्लिम समाज ने उत्पीड़न के शिकार बोसनिया और इराक़ के मुसलमानों, अराकान के रोहिंग्या मुसलमानों और ऊगुर मुसलमानों से एकबद्धता का इज़हार किया है। 'इस्लामोफ़ोबिया और इस्लाम ख़तरे में है' के नाम पर अनेकों आंदोलन हमारे भी देश के अलग अलग कोनों में अक्सर देखने को मिलते हैं। सलमान रश्दी और तस्लीमा नसरीन की किताबों के विरोध में जुलूस निकलते हैं। सलमान रश्दी की किताब सैटेनिक वर्सेज़ के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन में कई जानें चली गई थीं। यह सब केवल इसलिए कि मुसलमानों को लगता है कि उन्हें सारा जग मिलकर प्रताड़ित कर रहा है, जबकि दूसरी तरफ़ के लोगों को लगता है कि मुसलमानों ने ही समूचे संसार में उत्पात मचा रखा है। यही इस्लामोफ़ोबिया की वजह और उसकी दहशत का सबसे बड़ा कारण है।

अधिकतर इस्लामी देशों में खुलकर अपनी बात रखने की मनाही है। पैग़ंबर मोहम्मद साहब की हदीस का जब भी हवाला दिया जाता है तो किसी न किसी सहाबी के ज़रिये सवाल किया गया होता है और मोहम्मद साहब उसका माक़ूल तसल्लीबख़्श जवाब देते पाए जाते हैं। क्या यह चिंतन-मनन, आपसी परामर्श और लोकतंत्र का सुंदर उदहारण नहीं है जब ईशदूत की घोषणा होने के बावजूद लोग उनसे सवाल-जवाब करते थे? आज मुस्लिम समाज किसी भी मुस्लिम शासक से सवाल नहीं कर सकता। किसी मुस्लिम शासक के ख़िलाफ़ अपना असंतोष ज़ाहिर नहीं कर सकता। लेकिन जिन लोकतांत्रिक देशों में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं, वहां उस गणतंत्र की धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के साए में अपनी बात धड़ल्ले से रखने के लिए स्वतंत्र है। पाकिस्तान जैसे कथित इस्लामी मुल्क में भी आंदोलन होते हैं, सरकारें पलटती हैं, सरकारों के मुखिया का क़त्ल तक कर दिया जाता है। ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो और ज़ियाउल हक़ इसका उदहारण हैं। पाकिस्तान में लोकतंत्र कुछ हद तक इसलिए भी क़ायम रह सका क्योंकि वह हमारे देश से ही अलग होकर बना और यह उस दौर में उसकी मजबूरी थी। बंगलादेश में भी लोकतंत्र है। वहां भी अपनी बात रखी जाती है। लेकिन क्या किसी शाही मुल्क में अपनी बात रखने का कोई प्रावधान है? जबकि बादशाहत से इस्लाम का कोई वास्ता नहीं है। क्या यह सब इस्लाम के नाम पर अपनाया गया विरोधाभास नहीं है?

दरअसल, इस्लामोफ़ोबिया दो शब्दों से मिलकर बना है- इस्लाम और फ़ोबिया। जिसका अर्थ है, इस्लाम का भय। जबकि इस्लामिक कट्टरवाद का मामला अलग है, जो कि दो अलग-अलग शब्द हैं। कट्टरवाद का मतलब होता है, कड़ा रुख़ अपनाने वाला। जब कभी इस्लामी कट्टरवाद के ख़िलाफ़ आवाज़ उठती है उसे इस्लामोफ़ोबिया कहकर हल्का करने की कोशिश की जाती है। ख़ून ख़राबे और हिंसा को सख़्ती से दबाए जाने पर यही आवाज़ मुखर होकर मुसलमानों पर ज़ुल्म किये जाने की आवाज़ बन जाती है। मुस्लिम समाज जाने-अनजाने उन शक्तियों के चंगुल में फंसता चला जाता है जो उन्हें कट्टरवाद की भट्टी में लगातार तपाकर अव्यवस्था फैलाए रखना चाहती हैं। ख़ून-ख़राबा और हिंसा की एक बड़ी वजह यह भी है। अगर सही इस्लाम द्वारा बताए अपने सत्कर्मों से मुसलमानों ने इस्लाम की असल शिक्षा को साबित कर दिया तो न इस्लामोफ़ोबिया का भूत रहेगा, न इस्लामी कट्टरवाद पनपेगा, न इस्लाम को कभी दोष देने की स्थिति में कोई होगा। इस्लाम के नाम पर किये जा रहे हिंसक कट्टरपंथ पर अगर प्रहार होता है तो मुसलमानों को इसे ख़ुद पर नहीं लेना चाहिए। वैसे भी आम मुसलमान ख़ुद भी हिंसा को जायज़ नहीं ठहराता। मामला तभी विवादित होता है जब प्रहार कट्टरवाद के नाम पर होता है लेकिन लक्ष्य मुसलमान होता है। इस बारीक सी लकीर को समझा दिया जाए और मुसलमानों को विश्वास में लिया जाए तो काफ़ी हद तक समाधान निकल सकता है। लेकिन मुसलमानों को ही इस परीक्षा में पहल करनी होगी। मुस्लिम समाज को ही विश्व को समझाना होगा कि इस्लामोफ़ोबिया नामक कोई बीमारी नहीं है और न ही हिंसा से इस्लाम का कोई वास्ता है, बल्कि इस्लाम तो रूहानियत और अमन को महत्व देता है।


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में विजिटिंग फैकेल्टी हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)