साभार- दोपहर का सामना 21 08 2020
देश एक तरफ कोरोना महामारी से लड़ रहा है तो दूसरी तरफ़ कुछ मुद्दे ऐसे भी आ जाते हैं जिस से इंसानियत भी शर्मसार हो जाती है। महामारी की उस सीख पर कोई गंभीरता से विचार नहीं करता कि प्राकृतिक आपदाएं और महामारियां धर्म, जाति, प्रांत, भाषा, देश देखकर नहीं आतीं। ऐसे में इंसानों द्वारा भेदभाव करना, आपस में रंजिशें पालना, सांप्रदायिकता फैलाना यानी इंसान होकर ख़ुद आफ़त बुलाना और दूसरों को आफ़त में डालना कहां तक उचित है। बेंगलुरू की हिंसा भी उसी का एक नमूना है जहाँ ११ अगस्त को पैग़ंबर मोहम्मद साहब पर एक अपमानजनक पोस्ट के बाद भयानक हिंसा भड़क उठी थी। उत्तेजित भीड़ ने एक कांग्रेस विधायक के आवास और डीजे हल्ली और केजी हल्ली पुलिस स्टेशनों पर हमला कर दिया था। उक्त विधायक के भांजे ने ही मोहम्मद साहब पर अपमानजनक पोस्ट किया था। भीड़ ने न सिर्फ़ हमला कर आगजनी और पत्थरबाजी की बल्कि दंगे को दूर तक फैलाया, जिसके बाद इलाक़े में कर्फ़्यू लगाना पड़ा। इस दंगे में ३ लोगों की मौत हो गई और सैकड़ों लोग ज़ख़्मी हुए। ११० लोगों को आगज़नी, पथराव और पुलिस पर हमले के आरोप में गिरफ़्तार किया गया। इस घटना के मामले में ‘सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ़ इंडिया’ का नाम सामने आया। दंगा फैलाने वालों को गिरफ़्तार भी किया गया।
इस हिंसा के बीच एक ख़बर ने सुकून पहुंचाया जिसके अनुसार कुछ मुस्लिम युवाओं ने अनियंत्रित भीड़ से एक स्थानीय मंदिर की सुरक्षा के लिए ‘मानव शृंखला’ बनाई और मुस्लिम समुदाय की हिंसक भीड़ के सामने डट गए। इस सावधानी और मुस्लिम समाज की सूझबूझ की वजह से दंगे की चपेट में आए इलाके के मंदिर को कोई हानि नहीं पहुंची। दरअसल यही कृत्य भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को प्रदर्शित करता है। हालांकि इस ख़बर को दंगों की ख़बर के बीच उतना स्थान नहीं मिला। ज़ाहिर सी बात है आज की मीडिया ने ख़बरों की नकारात्मकता को इस क़दर महिमामंडित कर रखा है कि शांत, सकारात्मक, सामाजिक और इंसानियत को जोड़ने वाली ख़बरें हाशिये पर पहुंचा दी गई हैं। इस बात में कोई शक नहीं कि आम हिंदू भाई भले ही सांप्रदायिक न हों, लेकिन वे भी टीआरपी की अंधी दौड़ में शामिल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और बिलकुल ही निरंकुश सोशल मीडिया के दुष्प्रचार का शिकार आसानी से हो जाते हैं। यही बात उन जाहिल मुसलमानों पर भी लागू होती है जो सोशल मीडिया के रचाए जाल में फंसकर ऐसी हरकतें कर बैठते हैं कि पूरी मुस्लिम क़ौम ही कठघरे में खड़ी कर दी जाती है।
पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद के रेखाचित्र छापने या अपमानजनक टिप्पणी किए जाने को लेकर मुस्लिम समुदाय में ख़ासी नाराज़गी की यह पहली घटना नहीं है। देश विदेश में अक्सर ऐसी घटनाओं की ख़बरें आती रही हैं। एक बात स्पष्ट करते चलें कि पवित्र क़ुरआन में अल्लाह या पैग़ंबर की तस्वीर बनाने पर कोई स्पष्ट पाबंदी का ज़िक्र नहीं है। एक आयत ज़रूर है, जिसका तर्जुमा कुछ यूँ है, "अल्लाह धरती और स्वर्ग को रचने वाला है, उसके रूप से मिलता-जुलता कुछ हो ही नहीं सकता" (अल-क़ुरआन- ४२:११) इस्लाम में चित्रों की मनाही का ज़िक्र सिर्फ़ सहीह अल-बुख़ारी हदीस में मिलता है। इस हदीस के मुताबिक़ एक बार मोहम्मद साहब ने यात्रा से घर लौटने पर अपनी पत्नी हज़रत आयशा के कमरे पर एक पर्दा देखा जिस पर चित्र बने थे। इसे देख उन्होंने नाराज़गी जताते हुए जो कहा उसका मफ़हूम है कि, 'क़यामत के दिन तस्वीर बनाने वालों को सबसे सख़्त सज़ा मिलेगी।' हदीस शरीफ़ की इसी दलील के आधार पर पर विभिन्न फ़िरक़ों के इस्लामी धर्मगुरुओं ने तस्वीरों को प्रतिबंधित क़रार दे दिया।
दरअसल मुसलमानों की आस्था है कि इंसान अपने हाथ से अल्लाह को एक तस्वीर में नहीं समा सकता क्योंकि उसकी दिव्यता और भव्यता इंसान की पहुँच से बाहर की बात है। ऐसी कोई कोशिश करना अल्लाह की तौहीन और ग़ैर इस्लामी कृत्य समझा जाता है। मुसलमानों की यह आम राय है कि अगर अल्लाह या पैग़ंबर की तस्वीरें बनाना इस्लाम के बुनियादी उसूलों के पूर्णतया ख़िलाफ़ है। पवित्र क़ुरआन की इन चार आयतों में पूरा सार समाया है जिसका अर्थ है, "कहो कि वह एकेश्वर है। अल्लाह निरपेक्ष है। न वह किसी कोख से जन्मा है और न ही कोई उसकी कोख से जन्मा। और उस जैसा कोई और नहीं। (अल-क़ुरआन- ११२ :१ से ४ ) अर्थात जो ईश्वर बहुआयामी हो, जिसका कोई आदि और अंत न हो और जिसके जैसा कोई न हो, ऐसे सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी आराध्य को चित्र या मूर्ति के सीमित दायरे से देखा-समझा नहीं जा सकता।
यह तो हुई आस्था की बात, लेकिन अगर तस्वीरों का मामला या अल्लाह और मोहम्मद साहब पर अपमानजनक टिप्पणी का वाक़या पेश आ जाए तो क्या हिंसा ही एकमात्र उपाय है? क्या उस हिंसा की प्रतिक्रिया में मुस्लिम समाज हिंसा का शिकार नहीं होता? न जाने कितने बेक़सूर इस हिंसा की बलि नहीं चढ़ जाते हैं? क्या इस्लाम इसकी इजाज़त देता है? सड़कों पर उतरकर हिंसा करना क्या जिहाद है? क्या जो बेक़सूर हैं उनको मारना इंसाफ़ है? मोहम्मद साहब के दौर में या फिर उनके बाद के ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन के दौर में कोई ग़ैर इस्लामी, ईशनिंदा या पैग़ंबर की बेहुरमती से जुड़ा मामला पेश आता था तो लोग मामले को पैग़ंबर साहब या फिर ख़लीफ़ा के सम्मुख ले जाते थे। उस दौर के बाद की ऐसी घटनाओं का मामला हाकिम-ए-वक़्त के पास ले जाया जाता था। क़ुसूरवार पाए जाने पर सज़ा भी दी जाती थी। लेकिन क्या आज का मुसलमान ख़ुद को हाकिम समझता है? आज का मुसलमान ख़ुद ही फ़ैसले ले लेता है और हिंसा की भेंट ख़ुद भी चढ़ता है और दूसरों को भी चढ़ा देता है। मुसलमानों ने एहतियात और हिकमत की तालीम से बिल्कुल आँखें फेर ली हैं। इस्लामी मुल्कों तक में क़ानूनन सज़ा दी जाती है, जबकि हमारा मुल्क तो मिली-जुली और साझा संस्कृति से सजा देश है। यहां भी क़ानून का ही सहारा लेना चाहिए जिसकी ज़रूरत है। जबकि मुसलमानों को हदीस के हवाले से मुस्लिम धर्मगुरुओं ने यह सीख दे रखी है कि अल्लाह, पैग़ंबर मोहम्मद और अन्य किसी पैग़ंबर की भी तस्वीर नहीं होनी चाहिए और अगर कोई उनका अपमान करे तो क़त्ल कर दिया जाए। चूंकि मुसलमान हज़रत ईसा और हज़रत मूसा को भी पैग़ंबर मानते हैं इस लिहाज से उनकी तस्वीरें बनाना भी मना है। इतना ही नहीं, इस्लामी परंपरा में इंसानों या जानवरों के चित्र भी नहीं बनाए जाते। बहुत बड़ी तादाद मुसलमानों की ऐसी है जिन्हें लगता है कि पैग़ंबर मोहम्मद साहब की तस्वीरों का मंज़र-ए-आम पर आना और उन पर अपमानजनक टिप्पणियां होना पश्चिमी देशों की साज़िश का हिस्सा है जो उनसे दुश्मनी की भावना रखते हैं।
पैग़ंबर साहब को लेकर कहे गए नाज़ेबा कलिमात पर अगर मुसलमानों का ख़ून खौलता है तो एक बार मोहम्मद साहब की जीवनी का वह अंश भी पढ़ लें जब सूरह कौसर नाज़िल हुई थी। मोहम्मद साहब के इकलौते पुत्र के निधन और केवल बेटी से वंश चलने की बात पर जब उनके विरोधी तंज़ करते थे तो जवाब में मोहम्मद साहब द्वारा क़ुरआन की आयतें पेश गईं कि, "हमने तुम्हें बेटी के रूप में स्वर्ग की नदी कौसर प्रदान की है। इसलिए मेरी भक्ति करो। और जो तुम्हें वंश विहीन कहते हैं वे ख़ुद ही वंश विहीन हो जाएंगे।" (अल-क़ुरआन- १०८ : १ से ३) मोहम्मद साहब या उनके सहाबा ने किसी को क़त्ल नहीं किया। यानी उस समय के मुस्लिम समाज ने आज के मुसलमानों से ज़्यादा दूरदर्शिता और समझदारी का परिचय दिया। उन्होंने अपनी भावनाओं पर ठेस पहुंचने वाली बातों को या तो नज़रअंदाज़ किया या फिर फ़ितना फैलाने वालों के साथ संवाद बनाया। ग़ौर से देखा जाए तो क्या यह बात समझ में नहीं आती कि तोड़फोड़ से किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। क्या हिंसा से आज तक किसी का फ़ायदा हुआ है सिवाय उनके जो इन दंगों में अपनी सियासी रोटी सेंकते हैं या जिन्होंने साज़िश रचकर इन दंगों को अंजाम दिया होता है? जिन्होंने ग़लती की है उन्हें सज़ा ज़रूर मिलनी चाहिए और मिलेगी भी। लेकिन ज़रिया क्या सिर्फ़ क़ानून नहीं होना चाहिए? इस वक़्त जहान में नफ़रत का बोलबाला है। नफ़रत की इस खेती के घातक परिणाम का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। इस खेती से केवल नफ़रतें ही उगेंगी। दुनिया को मुसलमानों से 'इस्लाम' यानी 'शांति' की उम्मीद है। क्या मुस्लिम समाज इस बात को समझने को तैयार है?