साभार- दोपहर का सामना 31 07 2020
जब यह लेख आपके हाथों में होगा तब दुनिया के कई हिस्सों में ईद-उल-अज़हा हो चुकी होगी। हाजियों ने हज कर लिया होगा। लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में ईद-उल-अज़हा कल यानि शनिवार को मनाई जाएगी। खाड़ी देशों में भी इस बार कोरोना महामारी के कारण ईद-उल-अज़हा का पर्व फीका ही रहा। हाजियों की सीमित संख्या के कारण सऊदी अरब में तो ख़ास कर यह पर्व बेहद सादगी से ही मनाया गया। साहब-ए-हैसियत के लिए भले ही कोई ख़ास फ़र्क़ न पड़ा हो, लेकिन मध्यम आयवर्ग और ग़रीब तबक़े के लिए यह पर्व भी आम दिनों की तरह ही बीत जाएगा। इससे पहले भी देश के कई त्यौहार इस बीमारी की भेंट चढ़ चुके हैं। मुस्लिम समाज का आम तबक़ा हालात को समझते हुए अपनी चादर देखकर ही अपने पैर फैला रहा है। हाँ, कुछ मख़सूस तबक़े ने ज़रूर इस पर्व के बहाने अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाने के लिए बयानबाज़ियों का सहारा लिया। अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग सरकारों से क़ुर्बानी की इजाज़त चाही। सभी की नीयत में खोट रहा हो यह ज़रूरी नहीं, लेकिन अधिकांश लोगों के बयानों की वजह से माहौल में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का रंग चढ़ता नजर आया। वजह साफ़ थी कि, अगर क़ुर्बानी की इजाज़त दी जाती है तो बाकी धर्मों के पर्व और सार्वजनिक आयोजनों को भी अनुमति क्यों नहीं? ख़ैर, इस बहस का अंत न तो दोनों पक्ष के लिए मुद्दा उठाने वालों के पास है, न उस मीडिया के पास जिसके लिए इस बहस ने ख़ुराक दी और टीआरपी के दरवाज़े खोल दिए। बहस को जितने निचले दर्जे पर लाया जा सकता था, कुछ चैनलों ने वही किया और टीवी पर चमकने की लालसा रखने वालों को ख़ूब मौक़ा मिला। हालांकि इस बहस-मुबाहसे में ईद-उल-अज़हा की मूल भावना, उसकी रूहानियत, उसकी शिक्षा कहीं दब कर रह गई। ईद-उल-फ़ित्र के बाद ईद-उल-अज़हा इस्लाम वह का दूसरा अज़ीम त्यौहार है जिसका अपना ख़ास महत्व है। इस पर्व के गुण और आध्यात्मिकता के संदर्भ में इसकी एक विशिष्ट रूहानी पहचान है। आज मुस्लिम समाज बजाय ईद-उल-अज़हा की इस रूहानियत को समझने के, ईद-उल-अज़हा के एक-दो दिन पहले ख़रीदे गए जानवरों की क़ुर्बानी को ज़्यादा महत्व देने लगा है।
ईद-उल-अज़हा की क़ुर्बानी का तिजारती मक़सद भी बयान किया जाता है। इस्लाम के मुताबिक़ अपने रब की हर आज्ञा का पालन करने में बरकत का मामला है। यह आम मान्यता है कि ज़कात की अदायगी से धन में वृद्धि होती है, सदक़ा-ख़ैरात देने से मुसीबतें दूर होती हैं। इस्लाम के मुताबिक़ हर अच्छे कार्य में मानवता की भलाई है। हज़रत इब्राहिम और पैग़ंबर मोहम्मद साहब की इस सुन्नत से लाखों लोग अपने आप अरबों रुपये के कारोबार में शामिल हो जाते हैं। इसमें किसान, पशुपालक, पशु व्यापारी, लकड़ी खींचने वाले, चाकू बनाने वाले, मूल्य निर्माता, चारा विक्रेता, चटाई बनाने वाले शामिल हैं। इसी के साथ ईद-उल-अज़हा पर सरकार को करोड़ों रुपये का राजस्व मिलता है। पशुविक्रेताओं और क़साई की आय में तेज़ी से वृद्धि होती है। लेकिन एक बात जो ईद-उल-अज़हा की ख़ास है वह है क़ुर्बानी। और इस क़ुर्बानी का एक रूप है, एक आत्मा है। ज़ाहिर तौर पर यह सिर्फ़ एक जानवर को ज़बह करने के लिए है लेकिन इसकी वास्तविकता और मूल भावना है आत्म-बलिदान की भावना पैदा करना। पवित्र क़ुरआन और हदीस की रोशनी में क़ुर्बानी वह जज़्बा है जो हज़रत इब्राहीम और उनके बेटे हज़रत इस्माइल ने पेश किया। उन्होंने इस जज़्बे को अपने रब के लिए एक उदाहरण के रूप में पेश किया। वास्तव में, बलिदान का तथ्य यह था कि ईश्वरप्रेमी ख़ुद अपना जीवन अपने रब को अर्पित करे। लेकिन सर्वशक्तिमान रब की दया को देखिए कि उसे यह गवारा न हुआ इसीलिए उसने पिता से जानवर को ज़बह करवाया। भावना यह थी कि जैसे आपने ख़ुद को और बेटे को बलिदान कर दिया हो।
इस्लामी मान्यताओं के अनुसार हज़रत इब्राहिम को ख़्वाब आया था कि ख़ुदा ने अपनी सबसे प्यारी चीज़ की क़ुर्बानी मांगी है। ख़ुदा का हुक्म समझकर हज़रत इब्राहीम ने अपने प्यारे बेटे इस्माइल की क़ुर्बानी देने का मन बनाया और उनकी क़ुर्बानी देने के लिए तैयार हो गए। जब हज़रत इब्राहीम अपने बेटे की क़ुर्बानी दे रहे थे तो ईश्वर उनकी क़ुर्बानी देने के इस जज़्बे से बेहद ख़ुश हुए और हज़रत इस्माइल की जगह दुंबे की क़ुर्बानी हो जाती है। मान्यता है कि अल्लाह इब्राहिम की परीक्षा ले रहे थे, जिसमें वो सफल हो जाते हैं। क़ुर्बानी की रस्म की शुरूआत यहीं से हुई। मुसलमानों के साथ-साथ यहूदियों और ईसाईयों के यहाँ भी हज़रत इस्माइल की जगह किसी दुंबे का प्रकट होना एक ईश्वरीय चमत्कार और करिश्मा ही माना गया। उसी दिन से जानवरों की क़ुर्बानी की रस्म अपना ली गई। लेकिन क्या हज़रत इब्राहीम या हज़रत इस्माइल जैसा ईश समर्पण भाव आज के मुसलमानों में पाया जा सकता है? आज का मुसलमान यह भूल गया है कि उस क़ुर्बानी के पीछे जो त्याग और बलिदान की भावना थी वह कहीं खो गई है। क्या मुसलमानों ने कभी इस बात पर गंभीरता से विचार किया है कि सिर्फ़ जानवर काटने, गोश्त बांटने से क़ुर्बानी का असल मक़सद हल हो जाता है? याद रहे, हज़रत इब्राहीम से रब-ए-करीम ने यह भी पूछा था कि अगर मेरी रज़ा और ख़ुशी के लिये आप से कोई चीज़ क़ुर्बान करने की मांग की जाये तो क्या आप कर दोगे? हज़रत इब्राहीम ने अपने बेटे की क़ुर्बानी देने की तैयारी करके यह साबित किया था कि वह अपनी सबसे अज़ीज़ और क़ीमती चीज़ भी अल्लाह की राह में क़ुर्बान कर सकते हैं। यही इस क़ुर्बानी की असल रूहानियत है। अब अगर आज के मुसलमानों से यह सवाल किया जाए तो क्या उसी तरह के जवाब का दावा किया जा सकता है? क्या आज का मुसलमान अल्लाह के नाम की दुहाई देने पर अपनी सबसे प्यारी चीज़ क़ुर्बान करने को तैयार होगा? अगर मुसलमानों ने वाकई क़ुर्बानी का सही अर्थ, उसकी रूहानियत और त्याग की भावना को समझ लिया होता तो न तो मामूली बातों पर झगड़े होते और न ही धार्मिक उन्माद में बहकर दंगे-फ़साद होते।
दरअसल क़ुर्बानी का असली अर्थ ख़ुदा ने बताया है कि अपनी प्यारी चीज़ को कमज़ोर और ज़रूरतमंद लोगों के लिए क़ुर्बान कर देना। हज़रत इब्राहीम और मोहम्मद साहब की क़ुर्बानी की सुन्नत के इस पैग़ाम को ईद-उल-अज़हा के दिन हमेशा याद रखना ही ईद-उल-अज़हा का मर्म है। प्यार-मोहब्बत से रहना, ज़रूरतमंदों की मदद करना, ग़रीबों और मिस्कीनों के लिए अपनी बहुमूल्य चीज़ की क़ुर्बानी देना यही ईद-उल-अज़हा का असली मक़सद है। जानवर की क़ुर्बानी केवल उसका प्रतीक मात्र है, यही उसका मूल नहीं हो सकता। अगर ऐसा होता तो उस ग़रीब का क्या जो अपनी तंगहाली के कारण क़ुर्बानी में हिस्सा तक न ले सके? इस्लाम की इन बारीक-बारीक सी रूहानियत भरी बातों और उनमें छुपे संदेशों को समझने की ज़रूरत है। हाथों में लहराती छुरी, कपड़ों पर क़ुर्बानी के जानवरों का लहू, जानवरों की संख्या के आधार पर क़ुर्बानी किये जाने की अकड़ लिए ज़मीन पर इतराते हुए चलने का नाम न तो मुसलमान है, न यह इस्लाम की सीख है, न ईद-उल-अज़हा का संदेश और न ही हज़रत इब्राहिम और मोहम्मद साहब की सुन्नत। क़ुरआन की इस आयत पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है जिसमें कहा गया है, "न तो उनका गोश्त और न ही उनका ख़ून अल्लाह तक पहुँचता है। लेकिन उनकी धर्मपरायणता यानि तक़वा उस तक ज़रूर पहुँचता है।" (अल-क़ुरआन २२:३७) क़ुरआन, हदीस और सुन्नत के सभी एहकाम को ध्यान में रखते हुए इंसान आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि परवरदिगार की नज़र में जो मूल्यवान है वह उसकी बाहरी उपस्थिति या दिखावा नहीं, बल्कि दिल के अच्छे इरादे और और उसकी पवित्रता है। मुसलमान क़ुर्बानी देकर अल्लाह को ख़ुश करने का दावा तो कर सकते हैं, लेकिन अगर उस क़ुर्बानी में पवित्रता, ईमानदारी, तक़वा, परहेज़गारी और परोपकार नहीं है तो यह बलिदान, यह क़ुर्बानी, यह त्यौहार केवल एक अनुष्ठान मात्र बनकर रह जाएगा।