साभार- दोपहर का सामना 14 02 20202
नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में देश भर में जारी विरोध प्रदर्शन के बीच दिल्ली विधानसभा के नतीजे आ गए। दिल्ली के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी ने एक बार फिर प्रचंड बहुमत के साथ जीत हासिल करते हुए ७० में से ६२ सीटों पर जीत हासिल की। दिल्ली चुनाव में साम-दाम-दंड-भेद का प्रयोग करते हुए आम आदमी पार्टी को कड़ी टक्कर देने के इरादे से उतरी भाजपा को महज़ ८ सीटों पर संतोष करना पड़ा। जबकि कांग्रेस को एक बार फिर बुरी तरह परास्त होने का दंश झेलना पड़ा। कांग्रेस को २०१५ की तरह ही इस चुनाव में भी एक भी सीट हासिल नहीं हुई। जहां तक बात मुस्लिम मतों की है तो इन नतीजों से साफ़ लगता है कि राष्ट्रीय राजधानी के मुस्लिम समुदाय की पहली पसंद अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ही रही। आप ने मटिया महल, सीलमपुर, ओखला, बल्लीमारां और मुस्तफ़ाबाद से मुस्लिम प्रत्याशियों पर भरोसा जताया था। वहीं, कांग्रेस ने भी इन पांचों सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे। लेकिन आप के सभी पांचों मुस्लिम उम्मीदवार बड़े अंतर से जीते, जबकि कांग्रेस के पांचों मुसलमान प्रत्याशियों की ज़मानत तक ज़ब्त हो गई।
दरअसल अरविंद केजरीवाल और आप की यह जीत कोई साधारण जीत नहीं बल्कि भाजपा के सैकड़ों सांसदों, विधायकों, अमित शाह, नरेंद्र मोदी समेत हिंदी तथा अंग्रेजी के प्रोपगेंडा चैनल्स की हार है। या यूं कहा जाए कि सोशल मीडिया में चलाए जा रहे नफ़रती कैंपेन की हार है। यह हार उस सोच की भी है जिसमें भाजपा विरोध को देशद्रोह बता दिया जाता है। जिसमें कहा जाता है कि मुसलमान देशद्रोही हैं। यह हार उस अहंकार की भी कही जा सकती है जिसे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और कथित भाजपाई फ़ायरब्रांड नेता हर वक्त ओढ़े रहते हैं। कुल मिलाकर नतीजे बताते हैं कि हिंदू और मुसलमान के बीच नफ़रत पैदा करनेवाली सियासत औंधे मुंह गिर गई है। वो इसलिए कि आम आदमी पार्टी को केवल मुसलमानों के वोट नहीं मिले हैं। दिल्ली में मुस्लिम मतदाताओं की तादाद सिर्फ़ १२ फ़ीसदी है। मुस्लिम मतदाता दिल्ली की ७० में से केवल आठ सीटों के नतीजों को ही सीधे तौर पर प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। और आप को मिली है ६२ सीट। बड़ा फ़र्क़ है ८ और ६२ में, इस बात को समझना होगा। दिल्ली की राजनीति में मुस्लिम वोटर बहुत ही सुनियोजित तरीक़े से वोटिंग करते रहे हैं इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। एक दौर में मुसलमानों को कांग्रेस का परंपरागत वोटर माना जाता था। लेकिन भाजपा की आक्रामकता और कांग्रेस की मरणासन्न अवस्था के कारण वह आप की तरफ शिफ़्ट हो गया। उसे आप के मुद्दे कितना भले लगे यह बात दीगर है, लेकिन उसने भाजपा बनाम विपक्ष की लड़ाई में आप को महत्वपूर्ण माना इसलिए कांग्रेस से किनारा करने में उसे हिचकिचाहट नहीं महसूस हुई। लेकिन मुस्लिम समाज को कोई मुग़ालता नहीं पालना चाहिए कि आप की जीत केवल मुस्लिम मतदाताओं के कारण हुई है। दरअसल यह दिल्ली वालों की एक तरह से अग्निपरीक्षा थी कि क्या वह दिल्ली के विकास, केजरीवाल की छवि, आप के कार्यों पर वोट करेगी या हिंदू-मुसलमान के मुद्दे पर। लोगों ने विकास और केजरीवाल का साथ दिया।
मुस्लिम समाज का यह समर्थन केजरीवाल को पिछले चुनाव में भी मिल चुका है। २०१५ के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम समुदाय की दिल्ली में पहली पसंद आप ही बनी थी। दिल्ली की मुस्लिम बहुल सीटों पर आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों ने कांग्रेस के दिग्गजों को करारी शिकस्त देकर जब पिछली बार क़ब्ज़ा जमाया था तभी यह बात साफ़ हो गई थी। आम आदमी पार्टी ने सभी मुस्लिम बहुल इलाकों में न सिर्फ़ जीत का परचम फहराया था, बल्कि केजरीवाल ने अपनी आम आदमी पार्टी से जीते चार मुस्लिम विधायकों में से एक मुस्लिम विधायक को मंत्री भी बनाया था। हालांकि इससे पहले २०१३ में कांग्रेस से चार मुस्लिम विधायक चुने गए थे। लेकिन २०१५ और २०२० के चुनाव में कांग्रेस ने अपना यह वोट बैंक पूरी तरह से खो दिया। यानी मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप झेलनेवाली कांग्रेस को दिल्ली विधानसभा चुनाव में मुस्लिम समुदाय से निराशा ही हाथ लगी। दिल्ली विधानसभा चुनाव के अलावा अन्य चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं का रुझान अलग-अलग रहा है। मुस्लिम समाज ने दिल्ली में २०१३ के विधानसभा चुनाव और २०१९ के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए वोट किया था। कांग्रेस ने २०१३ में दिल्ली में जो आठ सीट जीती थी, उनमें से चार मुस्लिम विधायक शामिल थे। वहीं, २०१४ के लोकसभा चुनाव और २०१५ के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम समुदाय की दिल्ली में पहली पसंद आम आदमी पार्टी थी। कांग्रेस की आपसी गुटबाज़ी, दिशाहीन नेतृत्व और किसी स्वीकार्य चेहरे के अभाव में मुस्लिम समाज का समर्थन आम आदमी की तरफ शिफ़्ट हो गया। लेकिन उन्हीं मतदाताओं ने दोबारा २०१९ के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का दामन थामा। इसका नतीजा रहा कि कांग्रेस दिल्ली में भले ही एक सीट न जीत पाई हो, लेकिन वोट फ़ीसदी में वह आप को पीछे छोड़ते हुए दूसरे नंबर पर रही।
दिल्ली के मुस्लिम बहुल इलाकों में बिजली सप्लाई में सुधार, सड़क, पानी और अस्पताल जैसे मुद्दे अहम रहे हैं। लेकिन देश भर में चल रहे सीएए और एनआरसी जैसे मुद्दे भी इस बार के चुनाव में मुस्लिम इलाक़ों को प्रभावित कर रहे थे। शाहीन बाग़, सीएए और एनआरसी जैसे मुद्दों को लेकर कांग्रेस के तेवर सख़्त थे और कांग्रेस के तमाम नेता विरोध प्रदर्शन में शामिल होकर इस मुद्दे पर मुस्लिम समाज के साथ खड़े होने की कोशिश करते नज़र आए। वहीं, आम आदमी पार्टी ने सूझबूझ और रणनीति के तहत इस पर ख़ामोशी अख़्तियार की। केजरीवाल ने अपने पांच साल के विकास कार्यों को लेकर मुस्लिम समुदाय का दिल जीतने का प्रयास किया। मुस्लिम समाज यूं भी ध्रुवीकरण की राजनीति से परेशान था। उसने कांग्रेस को न चाहते हुए भी दरकिनार किया। भाजपा इस मुद्दे पर आक्रामक होकर ध्रुवीकरण का पूरा मंच सजा रही थी लेकिन मुस्लिम मतदाता इस ट्रैप में नहीं आए। उन्होंने दिल्ली की आम जनता का मूड भांप कर उनके साथ जाने का मन बनाया। इस तरह उसने अपनी सबसे पुरानी पसंद कांग्रेस से एक बार फिर किनारा करते हुए भाजपा को शिकस्त देने की रणनीति के तहत आप का साथ दिया। भाजपा का ध्रुवीकरण का खेल सफल नहीं हो पाया और आम आदमी पार्टी ने लगातार तीसरी बार सरकार बनाकर भाजपा और कांग्रेस को एक साथ किनारे लगा दिया।
तो क्या इस जीत को शाहीन बाग़ की जीत कहा जाएगा? क्या यह पाकिस्तान की जीत है? क्या यह केवल दिल्ली के मुसलमानों की जीत है? क़त्तई नहीं। चुनाव हारने के बाद भी मुसलमानों को आतंकवादी और आप को आतंकवादियों की समर्थक पार्टी बतानेवाले मैसेजेस से सोशल मीडिया के प्लेटफ़ॉर्म भरे पड़े हैं। आप के साथ गए ग़ैर-मुस्लिम मतदाताओं को भी जमकर कोसा जा रहा है। दरअसल यही अहंकार और आक्रामकता भाजपा के लिए नुक़सानदेह साबित हुई है। लेकिन बजाय इस पर मंथन करने के, भाजपा समर्थकों ने चुनावी नतीजों को लेकर ज़हर उगलना जारी रखा है। उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अरविंद केजरीवाल को दिया गया बधाई संदेश और केजरीवाल का धन्यवाद देने के साथ ही केंद्र के साथ मिलकर दिल्ली का विकास करनेवाला जवाब एक बार ग़ौर से पढ़ना और समझना चाहिए। उन्हें पीएम और सीएम के इन संदेशों से सबक लेना चाहिए जो कि इस देश के लोकतंत्र की ख़ूबसूरती है। सीधी सी बात है दिल्ली के १२ फ़ीसदी मुस्लिम मतदाताओं के बूते की बात नहीं कि वह अपने दम पर कोई सरकार बना लें। हां, वह निर्णायक ज़रूर हो सकते हैं। राजनैतिक दलों को भी अब यह सोचना होगा कि विकास के मुद्दे पर अगर चुनाव लड़ा जाए तो ध्रुवीकरण की राजनीति करनेवाली ताक़तें परास्त हो सकती हैं। भाजपा-कांग्रेस का उदाहरण सामने है। लेकिन क्या आत्ममुग्ध इन पार्टियों से इस समझदारी की उम्मीद की जा सकती है?