साभार- दोपहर का सामना 07 02 2020
क्या मुस्लिम महिलाओं को मस्जिद में नमाज़ पढ़ने की अनुमति है? क्या मुस्लिम महिलाएं मस्जिदों में आ-जा सकती हैं? क्या महिलाओं का पुरुषों के साथ मस्जिद में जाना जायज़ है? ये कुछ सवाल हैं जो मुस्लिम समाज के भीतर भी पूछे जाते हैं और ग़ैर-मुस्लिमों की भी जिज्ञासा इस सवाल का जवाब जानने की है। सवाल है भी वाजिब। लेकिन अब यह सवाल केवल मुस्लिम समाज के भीतर का न होकर सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुँच चुका है। महिलाओं के मस्जिद में प्रवेश को लेकर पुणे के एक मुस्लिम दंपति ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर मांग की थी कि मुस्लिम महिलाओं को नमाज़ पढ़ने की अनुमित होनी चाहिए। इस याचिका पर सुनवाई के दौरान अलग-अलग पक्षों की तरफ से अलग-अलग दलीलें दी गईं। इन तमाम दलीलों के बीच सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यहाँ तक पूछ लिया कि, क्या इस मसले पर अनुच्छेद १४ का इस्तेमाल किया जा सकता है? क्या मस्जिद और मंदिर सरकार के हैं? बिल्कुल उसी तरह जैसे आपके घर में कोई आना चाहे तो आपकी इजाज़त ज़रूरी है। कोर्ट ने इस मामले में सरकार का पक्ष भी जानना चाहा। याचिकाकर्ता ने अपनी अपील में सु्प्रीम कोर्ट को बताया है कि भारत में मस्जिदों के अंदर महिलाओं को नमाज़ पढ़ने की इजाजत न होना न सिर्फ अवैध है, बल्कि संविधान की मूल आत्मा का भी उल्लंघन है।
मुस्लिम समाज में अलग-अलग फ़िरक़ों में इस संबंध में अलग-अलग राय है। ख़ासकर भारतीय उपमहाद्वीप में इस विषय पर अधिकांश फ़िरक़ों के मुताबिक़ मस्जिदों में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। जबकि, बोहरा और अहले हदीस जैसे चंद समूह इसकी इजाज़त देते हैं। शरई नज़रिये से क्या सही और क्या ग़लत है, अगर इस बहस में न भी पड़ा जाए तो मुस्लिम समाज की सर्वमान्य और बड़ी संस्था ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) का सुप्रीम कोर्ट में दिया गया हलफ़नामा काफ़ी मायने रखता है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने उच्चतम न्यायालय में कहा है कि, मुस्लिम महिलाओं को पुरुषों की तरह ही नमाज़ के लिए मस्जिदों में प्रवेश की अनुमति होती है। यास्मीन ज़ुबेर अहमद पीरज़ादा की जनहित याचिका पर एआईएमपीएलबी का यह जवाब आया है। इस जनहित याचिका में मस्जिदों में मुस्लिम महिलाओं का प्रवेश सुनिश्चित करने के लिए न्यायिक हस्तक्षेप की मांग की गई थी। इस पर प्रधान न्यायाधीश एस. ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली नौ सदस्यीय संविधान पीठ विचार कर रही है। यही पीठ अनेक धर्मों में और केरल के सबरीमला मंदिर समेत धर्मस्थलों पर महिलाओं के साथ भेदभाव से संबंधित कानूनी और संवैधानिक मुद्दों पर विचार कर रही है। एआईएमपीएलबी ने अपने हलफ़नामे में कहा है कि 'धार्मिक पाठों, शिक्षाओं और इस्लाम के अनुयायियों की धार्मिक आस्थाओं पर विचार करते हुए यह बात कही जा रही है कि मस्जिद के भीतर नमाज़ अदा करने के लिए महिलाओं के मस्जिद में प्रवेश की अनुमति है। अत: कोई मुस्लिम महिला नमाज़ के लिए मस्जिद में प्रवेश के लिए स्वतंत्र है। उसके पास मस्जिद में नमाज़ के लिए उपलब्ध इस तरह की सुविधाओं का लाभ उठाने के उसके अधिकार का उपयोग करने का विकल्प भी है।' इस हलफ़नामे में यह भी कहा गया है कि, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस संबंध में किसी विरोधाभासी धार्मिक विचार पर टिप्पणी नहीं करना चाहता। समाज एक तरफ़ तो महिलाओं को बराबरी देने की बात करता है तो दूसरी तरफ़ उन पर पाबंदियां भी लगाता है। यह दोमुंहापन महिलाओं को रास नहीं आ रहा। शनि शिगणापुर मंदिर, अय्यप्पा मंदिर, हाजी अली दरगाह जैसे धार्मिक स्थलों पर महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी के ख़िलाफ़ हिंदू-मुस्लिम महिलाओं ने एक तरह से आंदोलन छेड़ रखा था। शीर्ष अदालत मस्जिदों में मुस्लिम महिलाओं के प्रवेश, दाऊदी बोहरा मुस्लिम समुदाय में महिलाओं का ख़तना आदि से संबंधित प्रश्नों पर सुनवाई कर रही है। लेकिन एआईएमपीएलबी की अब भी यही दलील है कि धार्मिक आस्थाओं पर आधारित प्रथाओं के सवालों पर विचार करना शीर्ष अदालत के लिए उचित नहीं है।
अगर बारीकी से इस्लाम की किताबों का मुतालआ किया जाए तो यह बात लगभग शीशे की तरह साफ़ है कि इस्लाम में मुस्लिम महिलाओं के लिए जमात के साथ नमाज़ पढ़ना ना तो अनिवार्य है और ना ही जमात के साथ जुमे की नमाज़ में शामिल होना उनके लिए ज़रूरी है। जबकि पुरुषों के मामले में ऐसा नहीं है। मुस्लिम पुरुषों के लिए जमात के साथ नमाज़ पढ़ना और जुमे की नमाज़ में शामिल होना अनिवार्य है। एआईएमपीएलबी के हलफ़नामे में भी स्पष्ट किया गया है कि मुस्लिम महिलाओं को इस्लाम में विशेष स्थान दिया गया है। इस्लाम की शिक्षाओं के अनुसार उन्हें मस्जिद या घर पर जहां चाहें वहां नमाज़ पढ़ने पर उतना ही धार्मिक सवाब अथवा मिलेगा जितने पुरुषों को। एक बात ग़ौर करने की है कि भले ही हिंदुस्तान सहित भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य देशों में महिलाओं पर मस्जिदों में जाने पर प्रतिबंध हो लेकिन मुसलमानों के सबसे पवित्र धर्मस्थल काबा शरीफ़ में ऐसा नहीं है। काबा शरीफ़ में मुस्लिम महिलाओं पर किसी तरह की कोई रोक या कोई फ़रमान नहीं सुनाया गया है कि वो मस्जिदो में जाकर नमाज़ न अदा कर सकें। हमारे यहाँ मुस्लिम महिलाओं द्वारा आस्था की बुनियाद पर पुरुषों संग नमाज़ और मस्जिदो में अल्लाह की इबादत करने की मांग वर्षों से की जाती रही है। मुस्लिम महिलाओं की तरफ़ से मुस्लिम उलेमा से यहाँ तक सवाल किया गया है कि क़ुरआन की कोई एक ऐसी आयत बताएं जिसमें मुस्लिम महिलाओं को नमाज़ अदा करने से रोकने की बात कही गई हो। पवित्र क़ुरआन में सूरह अल-अहज़ाब की एक आयत में तो पुरुष और स्त्रियों को एक नज़र से देखने का उदहारण मिलता है। क़ुरआन कहता है, "ईमानवाले पुरुष और ईमानवाली स्त्रियाँ, निष्ठापूर्वक आज्ञापालन करनेवाले पुरुष और निष्ठापूर्वक आज्ञापालन करनेवाली स्त्रियाँ, सत्यवादी पुरुष और सत्यवादी स्त्रियाँ, धैर्यवान पुरुष और धैर्य रखने वाली स्त्रियाँ, विनम्रता दिखाने वाले पुरुष और विनम्रता दिखाने वाली स्त्रियाँ, सदक़ा (दान) देने वाले पुरुष और सदक़ा देने वाली स्त्रियाँ, रोज़ा रखने वाले पुरुष और रोज़ा रखने वाली स्त्रियाँ, अपने गुप्तांगों की रक्षा करने वाले पुरुष और रक्षा करने वाली स्त्रियाँ और अल्लाह को अधिक याद करने वाले पुरुष और याद करने वाली स्त्रियाँ - इनके लिए अल्लाह ने क्षमा और बड़ा प्रतिदान तैयार कर रखा है।" -(अल-क़ुरआन ३३:३५)
इस्लाम ने अपने अनुयायियों के लिए जो पांच चीज़ें शरई या मज़हबी तौर पर फ़र्ज़ की हैं वो हैं, शहादत यानि ख़ुदा के एक होने पर यक़ीन, नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज। इनमें स्त्री-पुरुष की बुनियाद पर न तो कोई रियायत है, न कोई भेद। तो सवाल यह है कि अगर मर्द अपना मज़हबी फ़र्ज़ अदा करने के लिए मस्जिद में नमाज़ पढ़ने जा सकते हैं तो महिलाएँ क्यों नहीं? मुसलमान हदीसों को अधिक महत्व देते हैं। उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा के हवाले से एक हदीस का मफ़हूम है कि, पैग़म्बर मोहम्मद साहब महिलाओं को मस्जिद में आने का बढ़ावा देते थे। उनका ख़ास ख़याल रखते थे। उनकी परेशानियों के बारे में बेहद संवेदनशील थे। एक हदीस में ऐसा भी ज़िक्र है कि, पैग़म्बर मोहम्मद साहब ने फ़रमाया कि, 'मैं नमाज़ शुरू करता हूँ और इसको लंबी पढ़ना चाहता हूँ, लेकिन किसी बच्चे के रोने की आवाज़ सुनता हूँ तो नमाज़ मुख़्तसर कर देता हूँ यानि छोटी कर देता हूँ।' हज़रत उम्म सलमा से रवायत है कि, पैग़म्बर मोहम्मद साहब मस्जिद में थोड़ी देर रुके रहते थे ताकि महिलाएँ मस्जिद से इत्मीनान से बाहर निकल जाएं। इन वाक़यात से एक बात तो साफ़ है कि मोहम्मद साहब के दौर में महिलाएँ मस्जिद में नमाज़ पढ़ती थीं। यही नहीं, महिलाएँ भी नमाज़ पढ़ाती थीं। हाँ, नमाज़ पढ़ने और पढ़ाने की उनकी जगह अलग होती थी। इस्लाम के शुरुआती दौर और हज़रत मोहम्मद के दौर में ऐसा कुछ नहीं मिलता है, जो महिलाओं को मस्जिद में जाने, इबादत करने, इकट्ठे जमात में नमाज़ पढ़ने के ख़िलाफ़ हो। इस बात का एहतेमाम अब भी किया जा सकता है। लेकिन पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण में शामिल मुस्लिम महिलाओं को लेकर क्या आज का मुस्लिम समाज यह जोखिम उठाने को तैयार होगा? मूल सवाल यही है, बाक़ी मुस्लिम महिलाओं को इस्लाम ने कहीं से कहीं पुरुषों के मुक़ाबले कमतर नहीं आँका है। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर इसीलिए आम मुसलमानों की भी नज़र है। शायद सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद मुस्लिम समाज की मनःस्थिति साफ़ हो। लेकिन इतना तो तय है कि कोर्ट के फ़ैसले के बाद मुस्लिम महिलाओं को मुस्लिम पुरुष प्रधान समाज के असल रूप से वाक़फ़ियत हो जाएगी।