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इबादत की चाक पर आस्था का दीपक / सैयद सलमान
Friday, October 18, 2019 - 9:52:26 AM - By सैयद सलमान

इबादत की चाक पर आस्था का दीपक / सैयद सलमान
सैयद सलमान
​साभार- दोपहर का सामना 18 10 2019 ​

हमारे देश की विरासत में ऐसी कई चीज़ें हमें मिली हैं जिसकी बुनियाद पर कहा जा सकता है, कि 'सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा।' अभी कुछ दिनों पहले ही हमने नवरात्रि और विजयदशमी का पर्व पूरे हर्षोल्लास से मनाया। उस से पहले ईद भी मनाई, गणेश-चतुर्थी भी मनाई है। बस कुछ दिनों के भीतर दीपावली का पर्व भी मनाएँगे। दरअसल भारत विविधताओं से भरा देश है और यह हमारा गौरव है। धर्म, प्रान्त, भाषा जैसी ‘विविधता’ ही भारत की विशिष्ट पहचान है। भले ही जाति, भाषा, विचारधारा, धर्म, संस्कृति, खान-पान, वेशभूषा, आदि अलग हों, लेकिन हमारे देश की ‘एकता’ और ‘समरसता’ हमारी ताकत है। सद्भाव, आपसी समझ, मैत्री और सामाजिक समन्वय के जरिए भारत के नागरिकों में देश की अखण्डता और एकता को मज़बूत करने का जज़्बा है। सांप्रदायिक सद्भाव और राष्ट्रीय एकता का माहौल क़ायम रखने में और ‘मिल-जुलकर रहने की तहज़ीब’ को बढ़ावा देने में अनेक पर्वों का भी समावेश है। दशहरा, दिवाली, होली, ईद, क्रिसमस, गुरुपर्व, नवरोज़ जैसे विविध पर्व न केवल एक दूसरे से जोड़ते हैं, बल्कि देश की शान विश्वपटल पर बढ़ाते भी हैं। यानि हमारा देश करुणा, प्रेम, आपसी सद्भाव वाला वह देश है जो दुनिया को अमन और भाईचारे का संदेश देता रहा है। यहां की प्राचीन परंपराओं ने अहिंसा, करुणा का संदेश पूरी दुनिया को दिया है। इसी देश में जैन, बौद्ध और सिख धर्म पैदा हुए। बाहर से आए इस्लाम, ईसाई व पारसी धर्म के लोग भी बिरादरान-ए-वतन के साथ आज भी मिल-जुलकर सद्भावनापूर्वक रहते हैं। ऐसा आज से नहीं बल्कि सदियों से चला आ रहा है जो सिर्फ़ यहां की सद्भाव व सहिष्णुता की संस्कृति के चलते ही संभव हो पाया है। इक्का-दुक्का अपवाद पर जाने का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि वह मुट्ठी भर लोगों की साज़िश भर है और उस से ज़्यादा कुछ नहीं।

बात दीपावली की हो रही थी जो हिंदू भाइयों का सबसे बड़ा त्यौहार है। क्या आपको यक़ीन होगा कि दीपावली के पर्व में कुछ जगह तो मुसलमानों के बिना दीपावली की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उत्तर भारत के बिहार प्रांत के सीतामढ़ी में मुस्लिम समुदाय के हाथों बनाए गए दीपों से ही दीपावली का जश्न मनाया जाता है। यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है। सीतामढ़ी ज़िला धार्मिक रूप से संवेदनशील है। इस गांव में बड़ी आबादी मुसलमानों की है। यहाँ हज़ारों परिवार ऐसे हैं जिनके घर में दीपावली का पूजा-पाठ मुसलमानों के हाथों बनाए गए मिट्टी की पूजन सामग्री से ही संपन्न होता है। सीतामढ़ी के एक छोटे से गांव सिमरा के मुसलमान चाक पर अपना हुनर दिखते हैं और आकर्षक दीप बनाते हैं। इन गांव वालों को न तो किसी धर्म से मतलब है और न ही किसी मज़हब से। यहां के लोग बस कर्म को अपना धर्म मानते हैं और शायद यही वजह है कि पिछले लंबे अरसे से यहां के हुनरमंद मुसलमान चाक पर कड़ी मेहनत से हिंदुओं के लिए मिट्टी की पूजा सामग्री बनाते आ रहे हैं। यहां से बड़ी तादाद में बनाए गए मिट्टी के दीये सीतामढ़ी और आस-पास के ज़िलों में भेजे जाते हैं। दीपावली का त्योहार इनके द्वारा बनाए गए दीपों के बिना अधूरा है। यह परंपरा पिछले कितने वर्षों से चली आ रही है, यह कोई नहीं जानता। इस पेशे में नए-नए लोग समय के साथ जुड़ते चले जा रहे हैं। न बनाने वाले के मन में किसी प्रकार का भेद है न ख़रीदने वाले के। मुंबई शहर के बाज़ारों में भी आपको हज़ारों ऐसी दुकानें मिल जाएंगी जहाँ से दीपावली की ख़रीदारी होती है और वो दुकानें मुस्लिम समाज की होती हैं। हिंदू भाइयों की दुकानों के बिना ईद जैसे बड़े त्यौहारों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। दरअसल हम इसी विविधता में समरसता की बात कर रहे हैं।

कुछ वर्ष पूर्व एक मामले ने काफ़ी तूल पकड़ लिया था जब एक मौलवी ने हिंदू भाइयों को दीपावली की शुभकामनाएं देने से मुस्लिम समाज को रोकने की कोशिश की थी। उक्त मौलवी ने ग़ैर-मुसलमानों को दीपावली पर शुभकामनाएं देने को ग़ैर-इस्लामिक बताया था। क्या ऐसा कर उस मौलवी ने दो धर्म के बीच दरार बढ़ाने की कोशिश नहीं की थी? उनके वीडियो पर मुसलमानों सहित अनेक धर्मावलंबियों ने अच्छी ख़ासी बहस की थी। अनेक मुसलमानों ने उनकी राय से असहमति जताई थी। समझदार मुसलमानों का स्पष्ट मानना था कि ऐसी तमाम कोशिशें भेद बढ़ाने का काम करती हैं। ऐसे लोगों की वजह से ही मुसलमानों के प्रति अन्य वर्ग में ग़लत संदेश जाता है और प्रतिक्रिया स्वरुप मुसलमानों को कई जगह हिक़ारत से देखा जाता है। ऐसा होने पर मुसलमानों के कथित मसीहा गला फाड़-फाड़ कर असहिष्णुता का रोना रोने लग जाते हैं। जबकि उन्हें दूरियां बढ़ाने की बात करने वाले कट्टरपंथी उलेमा से संवाद करना चाहिए। उनसे सवाल करना चाहिए कि विविधताओं भरे देश में बहुसंख्यकों की भावनाओं को आहत करना कहाँ तक सही है? जो दूसरे धर्म की इज़्ज़त नहीं करता, कोई उसके धर्म का सम्मान आख़िर कैसे करेगा? एक वीडियो में मौलाना महमूद मदनी को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की महानता को न सिर्फ़ स्वीकार करते दिखाया गया है, बल्कि यह कहते हुए भी दिखाया गया है कि सच्चा मुसलमान कभी श्रीराम का विरोध नहीं कर सकता। उन्होंने अल्लामा इक़बाल के उस कलाम का भी हवाला दिया जिसमें उन्होंने हिंदुओं के पूजनीय मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को 'इमाम-ए-हिंद' बताया है। यक़ीनन मुसलमानों की बड़ी संख्या 'इमाम-ए-हिंद' श्रीराम के प्रति आदर का भाव रखती है, क्योंकि क़ुरआन और हदीस ने किसी भी अन्य धर्म के महापुरुषों, पैग़म्बरों या उनके इष्टदेवताओं के प्रति दुर्भाव रखने से सख़्ती से मना किया है। चंद सरफिरे और कट्टरपंथी कुछ भी कहें, आम मुसलमान अब इन बातों को समझने लगा है। बहुसंख्यक भाइयों और मुस्लिम समाज के भीतर तक बसी ग़लतफ़हमियों को दूर करने की ज़रूरत है। यह सच है कि अधिकांश हिंदू भाइयों को सही इस्लाम को लेकर ग़लतफ़हमी है और मुसलमानों की कट्टरपंथी जमात ने ही इस ग़लतफ़हमी और दूरी को बढ़ाने का काम किया है।

धर्म और मज़हब की दकियानूसी सोच को एक तरफ़ कर, भारत के सच्चे बाशिंदों को धर्म के दलालों के मुंह पर तमाचा जड़ना होगा। आम जनों तक यह संदेश देना होगा कि यह मुल्क, यह धरती, यहाँ की संस्कृति, यहाँ के रीति-रिवाज, यहाँ की मान्यताएं अलग-अलग हो सकती हैं लेकिन ईश्वर के अस्तित्व की समझ सभी की एक है। ऐसा करना इसलिए भी ज़रूरी है कि, यदि भेद बढ़ाया जाता रहा तो उसे मिटाना मुश्किल हो जाएगा। किसी भी परिवार का आपसी कलह उस परिवार को खोखला कर देता है। ठीक उसी तरह भारत के साए में रहने वाला हर नागरिक बिला किसी तफ़रीक़ के एक दूसरे से जुड़ा हुआ परिवार है। तो क्या कोई सच्चा हिंदुस्तानी चाहेगा कि हिंदुस्तान खोखला हो? कदापि नहीं। जो चाहेगा वो हम में से नहीं। देशप्रेम की सीख पैग़म्बर मोहम्मद साहब ने भी कई मौक़ों पर दी है। सच्चा मुसलमान तो 'हुब्बुल वतनी-निस्लफ़ु ईमान' अर्थात 'वतन से मोहब्बत, आधा ईमान है' की उक्ति पर अमल करता है। तीज-त्यौहारों पर एकता दिखाना, एक दूसरे को शुभकामनाएं देना, एक दूसरे की ख़ुशियों में शरीक होना हमारे देश की संस्कृति है। और यक़ीनन सच्चा मुसलमान यहां की संस्कृति से बेपनाह मुहब्बत करता है। इसलिए, इस दीपावली बिरादरान-ए-वतन को तहे दिल से ख़ूब-ख़ूब मुबारकबाद दें। उनके साथ ख़ुशियां बांटें, उनकी ख़ुशियों में शामिल हों। यक़ीन मानें, इस्लाम की शिक्षा इतनी संकीर्ण हो ही नहीं सकती कि किसी को शुभकामनाएं देने से रोकती हो या उनकी ख़ुशियों में शामिल होने को ग़ैर-इस्लामी मानती हो।