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जिहादी दुनिया में सूफ़ीवाद की प्रासंगिकता / सैयद सलमान
Friday, October 11, 2019 - 9:37:21 AM - By सैयद सलमान

जिहादी दुनिया में सूफ़ीवाद की प्रासंगिकता / सैयद सलमान
सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना  11 10 2019 

क्या आप जानते हैं पवित्र क़ुरआन की तिलावत हो या किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत करनी हो तो ईश्वर को किन दो नामों से बुलाया जाता है? बिरादरान-ए-वतन ने मुसलमानों के मुख से अक्सर 'बिस्मिल्लाह' का पाठ सुना होगा। इसी पूरे बिस्मिल्लाह में ईश्वर अर्थात अल्लाह के पहले दो नाम कृपालु एवं रहमदिल हैं, यानि अल्लाह रहमान और रहीम दोनों है। यही नहीं इस्लाम के अनुसार ईश्वर के ९९ नाम हैं और इन ९९ नामों में से कोई भी नाम हिंसा से जुड़ा हुआ नहीं है। उन नामों में से कोई भी बल और हिंसा से नहीं जुड़ता है जैसा कि इस्लाम को लेकर हिंसक वातावरण बनाने वाले कथित मुसलमान आभास देते हैं। यही वो लोग हैं जो ख़ुद को मुस्लिम इसलिए मान लेते है क्योंकि वे विशिष्ट परंपराओं और नियमों आदि का पालन करते हैं और इस्लाम के बताए हुए फ़र्ज़ को पूरा करते हैं। लेकिन यह फ़र्ज़, यह क्रियाएँ और मुस्लिम नाम रख लेना मात्र ही किसी को मुस्लिम बना देने के लिए पर्याप्त नहीं है। मुस्लिम होने का इस तथ्य से कोई संबंध नही है कि किसी का जन्म कहाँ हुआ है अथवा उसका निवास स्थान कहाँ है। कोई भी व्यक्ति तथाकथित मुस्लिम देशों में जन्म लेकर भी मुस्लिम नहीं हो सकता और न ही किसी विशिष्ट परंपरा का निर्वहन किसी को मुस्लिम बनाता है। ये तय कर पाना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है कि सच्चा मुसलमान आख़िर है कौन? क्योंकि किसी भी इस्लामिक विद्वान या उलेमा के पास ऐसी परिभाषा ही नहीं है जो सच्चे मुसलमान की व्याख्या कर सके और सबको स्वीकार्य भी हो। मुसलमानों के बीच यह धारणा बन गई है कि उनके बीच ७२ फ़िरक़े होंगे और उनमें से कोई एक फ़िरक़ा ही सही होगा। सो सभी फ़िरक़े के उलेमा अपने-अपने फ़िरक़े को सही और बाक़ी को ग़लत बताने में ख़ुद को झोंक देते हैं। वैचारिक मतभेद इतना है कि एक फ़िरक़े के लोग दूसरे फ़िरक़े के लोगों को मुसलमान ही नहीं मानते। इराक़, सीरिया, जॉर्डन, मिस्र, सऊदी अरब, कुवैत, ट्यूनीशिया, यमन, लीबिया, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान जैसे तमाम मुस्लिम देशों में मुसलमान ही मुसलमान का ख़ून बहा रहे हैं। ऐसे में यह कौन तय करेगा कि किसका फ़िरक़ा सही है और कौन सच्चा मुसलमान है?

दरअसल एक सच्चा मुस्लिम वह है जो परम-तत्व के प्रति पूर्ण समर्पण रखता हो। क्या आसपास ऐसे मुसलमान नजर आते हैं? हालांकि इस्लाम में सूफ़ीवाद को भी बड़ा महत्व दिया जाता है लेकिन एक बहुत बड़ा तबक़ा इसे ख़ारिज करता है। ख़ारिज करने वाले तबक़े की नज़र में सूफ़ीवाद का इस्लाम से कोई लेना देना नहीं है, जबकि इस्लाम के अर्थ शांति के यह बहुत नज़दीक है। कोई माने या न माने, सूफ़ीवाद या तसव्वुफ़ इस्लाम का एक महत्वपूर्ण अंग है। सूफ़ीवाद आंतरिक पवित्रता की बात करता है जबकि रूढ़िवादी मुस्लिम बाहरी आचरण और धार्मिक अनुष्ठानों पर ज़ोर देते हैं। सूफ़ीवाद में प्रेम और भक्ति ही केवल ईश्वर तक पहुंचने का साधन है। किसी भी फ़िरक़े का मुसलमान सूफ़ीवाद की धारा को अपना सकता है लेकिन उसके लिए किसी भी हिंसा को जायज़ ठहराने से बाज़ आना होगा। पैग़म्बर मोहम्मद साहब की शांति की शिक्षा का उनके अपने क़बीले के साथ ही मक्का के अन्य लोगों ने भी विरोध किया था। उन पर पत्थर बरसाए गए। यहाँ तक कि उनको लहूलुहान कर दिया गया, लेकिन उन्होंने उसे सहा भी और उन्हें माफ़ भी किया। क्या यह सूफ़ीवाद की शिक्षा नहीं है? क्या यह मान लेना ग़लत होगा कि पैग़म्बर मोहम्मद साहब ख़ुद सूफ़ीवाद के सबसे बड़े रहनुमा रहे हैं? क्या सूफ़ीवाद में सभी को अपने भीतर समाहित कर लेने का माद्दा नज़र नहीं आता? एक तरफ़ जिहाद की ग़लत व्याख्या कर विश्व भर में क़त्ल-ओ-ग़ारत का खेल खेला जा रहा है तो दूसरी तरफ सूफ़ीवाद में अमन ही अमन की बात है। सूफ़ीवाद में हिंसा की गुंजाइश ही नहीं है। ऐसे में जंगली भेड़िया बनकर ख़ून बहाना सही है या मानवता को सर्वोपरि मानकर अमन का परचम लहराना सही है यह सोचने का मक़ाम है। सूफ़ीवाद की पैरवी करने वालों को मुस्लिम समुदाय को समझाना होगा कि धार्मिक रूढ़िवाद और नकली जिहाद के नाम पर और हथियारों के बल पर कब तक इस्लाम को बदनाम किया जाएगा। क्या हिंसा और नफ़रत से विश्व को शांति और अमन का पैग़ाम मिल रहा है जो इस्लाम की असली रूह है? यह कहना अतिश्योक्ति तो बिलकुल नहीं है कि सबसे ज़्यादा अशांति के शिकार तो मुस्लिम बहुल देश ही हैं। हाँ, यह बात अलग है कि मुस्लिम समाज इस बात को मन ही मन मानता तो है लेकिन सरेआम स्वीकार नहीं करता। 

सच्चा मुसलमान हमेशा से उदारवादी रहा है। उदारवाद इस्लाम की सबसे प्यारी पहचान है। आज जिस इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ा जा रहा है उसका पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बर से कोई संबंध नहीं है। इस्लाम के भीतर की सूफ़ी परम्पराओं को लेकर आज भी कट्टरवाद के ख़िलाफ़ माहौल बनाया जा सकता है। भले ही आज मनगढ़ंत क़िस्सों-कहानियों के दम पर इस्लाम में कट्टरपंथी लोगों का बोलबाला हो, लेकिन नरमपंथी इस्लाम और सूफ़ीवाद ने उन्हें हमेशा पराजित किया है। पैग़म्बर मोहम्मद साहब, उनका ख़ानदान और बाद के वर्षों में अनेक औलिया हज़रात ने सूफ़ीवाद को इस्लाम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना दिया जो इस्लाम के भीतर ही है, जिसमें कुछ भी जोड़ना नहीं है। सूफ़ी-संतो के पास आज भी सही इस्लाम की शिक्षा का पुरातन तरीक़ा है जबकि कट्टरवाद के पैरोकार कथित जिहादी मुसलमानों के पास आधुनिक हथियार हैं। जिहाद के नाम पर न सिर्फ़ ग़ैर-मुस्लिम बल्कि अनेक मुस्लिम देशों को भी इन्हीं जिहादी मानसिकता ने अपनी चपेट में ले लिया है। जिहाद को एक ज़हर की तरह मुस्लिम नौजवानों में भर दिया गया है। जिहादियों के पास अब तो घर-घर पैर पसारने के लिए इंटरनेट का पूरा साजो सामान मौजूद है। 

ऐसे में जब हिंसक जिहादी दुनिया भर में इस्लाम को रुस्वा कर रहे हों, तब सूफ़ीवाद की प्रासंगिकता बढ़ जाती है। पूरी दुनिया में इस्लाम के प्रति व्याप्त नकारात्मक धारणा का मुकाबला सूफ़ीवाद के ज़रिए किया जा सकता है। इस्लामी सूफ़ीवाद में कट्टरपंथी कृत्यों, कट्टरपंथी तत्वों और पूरी दुनिया में फैल रहे नफ़रत भरे बेहद गंभीर संदेशों की काट है, बशर्ते मुसलमान ख़ुद आगे आएं और अपनी नई पीढ़ी को सूफ़ीवाद की सही तालीम दें। हो सकता है सूफ़ीवाद में भी कमियां हों लेकिन कम से कम वहां नफ़रत तो नहीं है, हिंसा तो नहीं है, असीम प्रेम तो है। सूफ़ीवाद और मौलवियों द्वारा बताए इस्लाम के बीच समग्रता और बहुलता के संदेश के संबंध में अंतर है। इसलिए ज़रूरी है कि इस्लाम के सच्चे स्वरुप और क़ुरआन की सही शिक्षा को आम किया जाए। ग़लत व्याख्याओं ने इस्लाम में बिगाड़ पैदा किया है जिसकी काट भी ज़रूरी है। अब उदारवादी मुस्लिम जगत को नई रणनीति अपनानी होगी। उन्हें कट्टरवादी मुस्लिम सोच का चेहरा और उनकी विचारधारा को दुनिया के सामने लाकर इसका पर्दाफ़ाश करना होगा। उन्हें बताना होगा कि यह जिहाद नहीं फ़साद है और क़ुरआन ने फ़साद पैदा करने से सरासर मना किया है। वो लोग जो अपने क़त्ल-ओ-ग़ारत और दहशतगर्दी के कामों को इस्लाम के आदेशानुसार बतलातें हैं, वो क़ुरआन और पैग़म्बर मोहम्मद साहब की तालीम का अपमान करते हैं। पवित्र क़ुरआन में अल्लाह का फ़रमान है "हमने हुक्म दिया कि अल्लाह की अता की हुई रोज़ी खाओ और धरती पर फ़साद फैलाते न फिरो।"- (२:६०-अल-क़ुरआन) क्या पवित्र क़ुरआन की इस आयत पर कभी जिहादी मानसिकता के लोग ग़ौर करेंगे?